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________________ श्रावकाचार-संग्रह तुर्यः षष्ठो निजायस्य विभागं धर्म-कर्मणे न करोति स ना कुक्षिम्भरिक्षिादतिरिच्यते॥१६९ स्वयं योऽभ्येति भिक्षार्थ सोऽतिथिः कथ्यते व्रती। भक्त्यान्नाद्यल्पमप्यस्मै दत्तं दत्ते फलं बहुः ॥१८० धत्तेऽतिथि विभागाख्यं यः शीलं श्रेयसे नरः । कुर्याद भोजनवेलायां स द्वारावेक्षणं सदा ॥१७१ सोत्तरीयो निरीक्ष्यषिमानन्देन वपुष्यमान् । नमोऽस्तु तिष्ठ तिष्ठेति तस्य कुर्यात्प्रतिग्रहम् ।।१७२ अन्तरानीय दद्याच्च तस्मायुच्चासनं स्वयम् । पादौ प्रक्षाल्य चाभ्यर्य प्रणम्यात्र त्रिशुद्धिभृत् ॥१७३ ततो नीत्वा कृतोल्लोचे स्थाने जन्तुजिते। मार्जारास्पृश्यशूद्राद्यगोचरे तमसोज्झिते ॥१७४ देशप्रकृतीः ज्ञात्वा पथ्यमाहारमादरात् । दद्यात्स्वस्योपकाराय तस्य चालस्यजितः ।।१७५ दद्यादन्नं न पात्राय यदेव पित्रादिकल्पितम् । मन्त्रितं नीचलोकाहं सावधं रोगकारणम् ॥१७६ अन्यग्राम-गृहायातं सपिःपक्वं दिनोषितम् । पुष्पितं चलितस्वादमित्याद्यन्यच्च निन्दितम् ॥१७७ इत्थं यो नवधा शुद्धया श्रद्धादिगुणसप्तकः । पात्राय शुद्धमन्नान्धो दद्यात्स स्याच्छ्रियां पदम् ॥१७८ प्रत्यहं कुर्वतामित्थं पात्रदानविधि सताम् । परा सत्परिणामित्वाज्जायते कर्मनिर्जरा ॥१७९ त्यजेत्सचित्तनिक्षेपापिधाने परदेशनम् । कालातिक्रममात्सर्ये चेति पञ्चातिथिवती ॥१८० यवसक्तून् प्रदायाऽप काले पात्राय यत्फलम् । तापसो याचनो नाप तन्नृपः स्वर्णयज्ञकृत् ॥१८१ ने अतिथिसंविभाग नामका शीलव्रत कहा है ॥ १६८ ।। जो मनुष्य अपनी आयका चौथा या छठा भाग धर्म कार्यके लिए त्याग नहीं करता है, वह अपनी कुंखको भरने वाला काकसे भी गया बीता है॥१६९ ।। जो व्रतो-संयमी भिक्षाके लिए स्वयं गहस्थके घर पहुंचता है वह अतिथि कहा जाता है। ऐसे अतिथिके लिए भक्तिसे दिया गया अल्प भी दान बहुत भारो फलको देता है ।। १७० ॥ जो मनुष्य इस अतिथिसंविभागरूप शोलव्रतको धारण करता है उसे आत्म-कल्याणके लिए भोजनके समय सदा द्वारावेक्षण करना चाहिए, अर्थात् घरके द्वार पर खड़े होकर अतिथिके आनेकी प्रतीक्षा करनी चाहिए ॥ १७१ ॥ धोतीके साथ उत्तरीय ( दुपट्टा) को धारण करनेवाला श्रावक आते हुए साधुको देखकर आनन्दसे शरीरमें नहीं समाता हुआ 'नमोऽस्तु' और 'तिष्ठ-तिष्ठ' कह कर उसको स्वीकार करे (पडिगाहे ) || १७२ ।। पुनः उन्हे घरके भीतर ले जाकर उच्चासन देवे और जलसे स्वयं उसके चरणोंका प्रक्षालन कर, उनका पूजन कर और प्रणाम करके मन वचन कायकी शुद्धिको धारण करता हुआ जीव-जन्तुओंसे रहित, ऊपर चंदोबा जिस स्थान पर बंधा है, जो मार्जार, अस्पृश्य शूद्रोंकी दृष्टिके अगोचर है और अन्धकारसे रहित है, ऐसे स्थान पर ले जाकर देश, ऋतु, काल और पात्रकी प्रकृतिको जानकर आदरपूर्वक आलस्य-रहित होकर अपने उपकारके लिए और पात्रके संयम-ज्ञानकी वृद्धिके लिए उसे पथ्य आहार देवे ।। १७३-१७५ ।। जो अन्न पितरोंके श्राद्ध आदिके लिए बनाया गया है मंत्रित किया हुआ है, नीच लोगोंके योग्य है, सदोष है, रोगका कारण है, अन्य ग्रामसे या अन्य घरसे लाया गया है, घी में पकाया गया है, दिनवासा है, पुष्पित है और स्वाद-चलित है, इत्यादि निन्दनीय अन्न पात्रके लिए नहीं देना चाहिए ॥१७६-१७७॥ इस प्रकार श्रद्धा आदि सात गुणवाला जो श्रावक नवधा भक्ति और शुद्धिसे पात्रके लिए शुद्ध भक्त-पान देता है, वह लक्ष्मीका आस्पद होता है ।। १७८ ।। इस प्रकार प्रतिदिन पात्र दानकी विधिको करने वाले सद्-गृहस्थोंके उत्तम परिणाम होनेसे भारो कर्मनिर्जरा हाती है ।। १७९ ।। सचित्त निक्षेप, सचित्तविधान, पर व्यपदेश, कालातिक्रम और मात्सर्य इन पांच अतीचारोंको अतिथिसंविभागवती परित्याग करे ।। १८० ।। भिक्षा मांगकर जीवन-यापन करनेवाले तापसने योग्य कालमें पात्रके लिए जोका सत्तू देकर जो उत्तम फल पाया, वह सुवर्ण यज्ञ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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