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________________ ५१३ श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार शिक्षाव्रतेषु वक्ष्येऽग्रे समता-प्रोषधवते । तत्तत्प्रतिमयोरेव तावदन्यद द्वयं शृणु॥१५८ भोगोपभोगयोर्यत्र परिसङ्ख्या विधीयते । भोगोपभोगसङ्ख्याख्यं शोलमालप्यतेऽत्र तत् ॥१५९ स भोगो भुज्यते .ज्यताम्बूलादि यदेकशः । उपभोगस्तु स स्त्र्यादि सेव्यते यवनेकशः ॥१६० भोगोपभोगवस्तूनां त्यागश्च द्विविधो मतः । यमो निरवधिस्त्यागः सावधिनियमाः स्मृतः॥१६१ भौगोपभोगवस्तूनि कानिचित् सर्वथा त्यजेत् । कानिचित् सावधि त्यक्त्वा भुज्यात्सङ्ख्याय कानिचित् ॥१६२ भौगोपभोगयोरेव हेतोः स्थावरहिंसनम् । गृही कुर्यात्ततः कार्य तदत्यल्पत्वमुत्तमैः ॥१६३ भोगोपभोगयोतिं सुखं याति क्षयं क्षणात् । पापं तु विरदुःखाय जायते तो ततस्त्यजेत् ॥१६४ दुःखानि नारकाण्यापात्सुदृष्टिरपि रावणः । भोगासक्यंव कश्यन्ते कियन्तोऽन्ये च तादृशः ॥१६५ तत्प्रत्याख्यानसङ्ख्याने तयोः कृत्वा सुधीस्त्यजेत् । अतीचाराश्च पञ्चात्र प्रपञ्चरहिताशयः ॥१६६ सचित्तं तेन मिश्रं च दुष्पक्वाहार इत्यपि । तथा सचित्तसम्बन्धाभिषवो चेति पञ्च ते ॥१६७ (इति भोगोपभोगसंख्या) स्वायस्यातिथये भव्यैर्यो विभागो विधीयते। अतिथेः संविभागाख्यं शीलं तज्जगजिनाः ॥१६८ शिक्षाबत चार होते हैं-मामायिक, प्रोषधापवास, भौगोपभोगपरिमाण और अतिथिसंविभागवत । इनमेंस सामायिकको आगे तीसरी प्रतिमाके रूपमें और प्रोषधोपवासको चौथी प्रतिमाके रूपमें कहेंगे। इस समय अन्य दो शिक्षाव्रतोंका स्वरूप कहते हैं सो सुनो ॥ १५८ ॥ जिस व्रतमें भोग और उपभोग व्रतकी संख्या नियत की जाती है, वह भोगोपभोग संख्या नामका शील कहा जाता है। १५९ ।। जो भोज्य-खानेके योग्य भक्त-पान, ताम्बूल आदि वस्तू एक बार भोगी जाती है, वह भोग कही जाती है और जो स्त्री, वस्त्र, पात्र आदि अनेक बार सेवन किये जाते हैं, वे उपभोग कहे जाते हैं ॥१६०॥ भोग और उपभोगरूप वस्तुओंका त्याग दो प्रकारका माना गया है-कालकी मर्यादाके बिना यावज्जीवनके लिए जो त्याग होता है, वह यम और कालको मर्यादाके साथ अल्प कालके लिए जो त्याग होता है वह नियम कहा जाता है ॥१६॥ भोग और उपभोगमें कितनी ही वस्तुओंको तो जीवन भरके लिए सर्वथा छोड़े और कितनी ही वस्तुओंको काल-मर्यादासे त्याग कर और संख्याका परिमाण करके सेवन करे ॥ १६२॥ भोग और उपभोगके निमित्तसे ही स्थावर जीवोंकी हिंसा होती है इसलिए गृहस्थको सभी कार्य यत्नाचार पूर्वक करना चाहिए और उत्तम पुरुषोंको भोग-उपभोगकी वस्तुओका उत्तरोत्तर अल्प-अल्प सेवन करना चाहिए ।। १६३ ।। भोग और उपभोगकी वस्तुओंसे उत्पन्न होने वाला सुख क्षण-भरमें क्षय हो जाता है और उससे उत्पन्न हुआ पाप चिरकाल तक दुःखके लिए ही है, इसलिए उन दोनोंका ही त्याग करना चाहिए ।। १६४ ।। भोगोंकी आसक्तिसे सम्यग्दृष्टि भी रावणने नरकोंके दुःख पाये हैं और कितने उस प्रकारके अन्य जीव पा रहे हैं उन कितनोंका कथन किया जावे ॥१६५। इसलिए बद्धिमान् मनुष्य को उन भोग और उपभोगके अनावश्यकका त्याग और आवश्यक शेषका परित्याग कर देना चाहिए और प्रपचसे राहत हृदयवाले मनुष्यको इस व्रतके पांच अतीचार भी छोड़ना चाहिए-सचित्तवस्तु, सचित्तसे मिश्रित वस्तु, दुष्पक्व आहार, सचित्तसे संबद्ध पदार्थ और अभिषव अर्थात् गरिष्ठ पौष्टिक पदार्थों का सेवन ॥ १६६-१६७ ॥ ( इस प्रकार भोगोपभोगसंख्यानव्रतका वर्णन किया ) भव्य पुरुषोंके द्वारा अतिथिके लिए अपने धनका जो विभाग किया जाता है, उसे जिनदेवों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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