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श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार
५१५ मत्वेत्याद्यागमाज्जैनात्फलमस्य प्रशस्यधीः । धत्तेऽतिथिविभागाख्यं गृही शीलं सुनिर्मलम् ॥१८२
इति द्वितीयां प्रतिमामिहैतां मया समासेन सती प्रणीताम् ।
दधाति यो दर्शनपूतचेता भवेत्स दुःकर्मरिपोविजेता ॥१८३ इति पण्डितश्रीगोविन्दविरचिते पुरुषार्थानुशासने सद्-व्रतप्रतिमाख्योऽयं चतुर्थोऽवसरः परः ॥
अथ पञ्चमोऽवसरः
अथाऽऽनम्य जिनं वीरमजमच्युतमीश्वरम् । वक्ष्ये सामायिकाभिख्यां तृतीयां प्रतिमामहम् ।।१ सावद्यकर्मदुर्व्यानरागद्वेषादिवर्जनात् । मनः साम्यैकलीनं यत्तद्धि सामायिकं स्मृतम् ॥२ शुद्धिः क्षेत्रस्य कालस्य विनयस्याऽऽसनस्य च । मनोवाग्वपुषां चेति सप्तसामायिक विदुः ॥३ पशुस्त्रीषण्ढसंयोगच्युते कोलाहलोज्झिते। शीतवातातपाधिक्यमुक्त दंशादिवजिते ॥४ सौगन्ध्यगीतनृत्याचे रहिते रागहेतुभिः । द्वेषबीजैश्च निर्मुक्ते धूमदुर्गन्धताविभिः ॥५ कन्दरे शिखरे वाद्रेने चैत्यालयेऽथ वा। निःस्वामिनि मठे शून्यगृहे वा रहसि क्वचित् ॥६ यदित्यादिगुणे स्थाने चेतःसौस्थित्यकारणे । सामायिक क्रियेत जैः क्षेत्रशुद्धिरियं मता ॥७ भव्यैः पूर्वाह्न -मध्याह्नापराह्नेऽनेहसस्तपः । क्रियते नातिक्रमो जातु कालशुद्धिममुं विदुः ॥८ यः स्यादनादराभावः सतां सामायिके सदा । विनयस्य मता शुद्धिः सा सिद्धान्तार्थवेदिभिः ॥९
करनेवाले राजाने फल नहीं पाया ॥ १८१ ॥ जैन आगमसे दानका इत्यादि फल जानकर प्रशस्त बुद्धि श्रावक अतिथिसंविभाग नामक शील व्रतको निर्मल रूपसे धारण करता है ॥ १८२ ॥
इस प्रकार इस दूसरी व्रत प्रतिमाको मैंने संक्षेपसे कही। जो सम्यग्दर्शनसे पवित्र चित्तवाला श्रावक इसे धारण करता है, वह दुष्कर्म रूपी शत्रुओंका जीतने वाला होता है ।। १८३ ।। इस प्रकार पण्डित श्री गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासनमें व्रत प्रतिमाका
वर्णन करने वाला यह चतुर्थ अवसर समाप्त हुआ। अब मैं अज, अच्युत, ईश्वर स्वरूप श्रीवीर जिनको नमस्कार करके सामायिक नामकी तीसरी प्रतिमाको कहूँगा ॥१॥ पाप कार्योंके, दुर्ध्यानके और राग-द्वेषादिके परित्यागसे जो मन समभावमें एकाग्र होता है, उसे सामायिक कहा गया है ॥ २॥ सामायिकमें क्षेत्रको शुद्धि, कालकी शुद्धि, विनयकी शुद्धि, आसनकी शुद्धि, मनको शुद्धि, वचनकी शुद्धि, और कायकी शुद्धि ये सात शुद्धियाँ जानना चाहिए ।। ३ ॥ पशु, स्त्री, नपुंसकके संयोगसे रहित, कोलाहलसे विमुक्त, शीत, वात और आतपसे मुक्त, डांस-मच्छरकी बाधासे रहित, सुगन्धता, गीत, नृत्य इत्यादि रागके कारणोंसे रहित, द्वेषके बीजभूत धूम, दुर्गन्धता आदिसे विमुक्त ऐसे किसी पर्वतके शिखर पर, कन्दरामें, वनमें, चैत्यालयमें, स्वामीसे रहित मठमें, सूने घरमें अथवा किसी उक्त गुणोंसे युक्त एकान्त स्थान में, जो कि चित्तकी सुस्थिरताका कारण हो, वहाँ पर सामायिक करना चाहिए, इसे ज्ञानी पुरुषोंने क्षेत्र शुद्धि कहा है ॥ ४-७॥ भव्य जनोंके द्वारा निर्दोष दिनके पूर्वालमें, मध्याह्नमें और अपराल कालमें जो तप किया जाता है, और उस कालका कभी अतिक्रमण नहीं किया जाता है, उसे कालशुद्धि जानना चाहिए ॥ ८॥ सामायिक करनेमें सज्जनोंके जो अनादरका अभाव होता है, अर्थात् सामायिक करनेमें अति आदर होता है उसे आगमके अर्थ
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