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________________ श्रावकाचार-संग्रह असत्यवादिनः कश्चिन्न विश्वसिति सर्पवत् । सनिन्द्यो मृषावादी पारदारिकवद् भवेत् ॥७१ पश्यतोहरवहण्डयो भूतघातीव पातकी । मृषावाक् सर्वदोषाणां नदीनामधिवत्पदम् ॥७२ यान्त्यतथ्यगिरः सर्वे गुणाः सन्तोऽदृश्यताम् । नक्षत्राणि किमिक्ष्यन्ते सन्त्यप्यभ्युदिते रवौ ॥७३ सत्यवाचस्तु सान्निध्यं गीर्वाणा अपि कुर्वते । जनयन्ति भयं नाहि-सिंहव्याघ्रादिका अपि ७४ सत्यवाग देववत्पूज्यो मान्यश्च गुरुवन्नृणाम् । वदान्यवद्यशस्वी स्याद् दृक्प्रियश्च सुमित्रवत् ॥७५ सत्यमेव ततो वाच्यं नासत्यं जातु सत्तमैः । को विहायामृतं दक्षो भक्षति क्षयकृद्विषाम् ॥७६ असत्यमपि तत्सत्यं यत्प्राणित्राणकारणम् । तत्सत्यमपसत्यं यत्सत्त्वघाताय जायते ॥७७ प्रमावतोऽसक्तिर्या तवसत्यं चतुर्विधम् । सदसत्त्वमसत्सत्त्वं पररूपं च निन्दितम् ॥७८ विस्तरेण चतुर्धापि ज्ञात्वैतज्जिनसूत्रतः । नासत्यं वक्ति यः किञ्चित्स सत्यवतभाग्भवेत् ।।७९ पञ्च न्यासहतिः कूटलेखो मिथ्योपदेशनम् । मन्त्रभेदो रहोभ्याख्या चातीचारा भवन्त्यमी॥८० परोपरोघतोऽप्युक्त्वा वसुराजोऽनृतं वचः। अपतन्नरकं घोरमचिन्त्यात्यन्तवेदनम् ॥८१ अथास्तेयम्स्थापितं पतितं नष्टं विस्मृतं भवने वने । गृह्यते नान्यवित्तं यत्तदस्तेयवतं मतम् ॥८२ कर्कश, पर-मर्मको भेदनेवाले और श्री जिन सिद्धान्तसे विरुद्ध वचन नहीं बोलना चाहिए ॥ ७० ॥ असत्यवादी पुरुषका कोई भी सांपके समान विश्वास नहीं करता है। मृषावादी पुरुष परस्त्री सेवन करनेवाले पुरुषके समान निन्दाका पात्र होता है ।। ७१ ॥ मृषावादी चोरके समान दण्डनीय, जीवघातकके समान पापी और सभी दोषोंका स्थान होता है, जैसे कि समुद्र सभी नदियोंका स्थान होता है ॥ ७२ ।। असत्यवादीके विद्यमान उत्तम गुण भी अदृश्य हो जाते हैं । सूर्यके उदय होनेपर क्या नक्षत्र दिखाई देते हैं ॥ ७३ ।। सत्यवादीका सामीप्य तो देव भी करते हैं और सर्प, सिंह, व्याघ्रादिक क्रूर जीव भी सत्यवादीके भय नहीं उत्पन्न करते हैं । अर्थात् सत्यके प्रभावसे कर जीव भी शान्त हो जाते हैं ।। ७४ ॥ सत्यवादी मनुष्य देवके समान पूज्य, गुरुके समान मान्य, मधुरभाषी उदार दाताके समान यशस्वी और उत्तम मित्रके समान नेत्रप्रिय होता है ।। ७५ ।। इसलिए उत्तम पुरुषोंको सदा सत्य वचन ही बोलना चाहिए, किन्तु असत्य वचन कभी नहीं बोलना चाहिए। कौन बुद्धिमान् अमृतको छोड़कर प्राण-विनाशक विषको खाता है ? कोई भी नहीं ॥७६।। जीवकी रक्षाके कारणभूत असत्य भी वचन सत्य हैं और प्राणिघातके लिए कारणभूत सत्य भी वचन असत्य हैं ।। ७७॥ प्रमादसे असद् वचन कहना असत्य है । असत्य चार प्रकारका होता है१. सत् अर्थात् विद्यमान वस्तुका अभाव कहना, २. अविद्यमान वस्तुका सद्भाव कहना, ३. किसी वस्तुको पर वस्तुरूप कहना और ४. निन्दित वचन बोलना ।। ७८ ।। इन चारों प्रकारका विस्तृत स्वरूप जिनागमसे जानकर जो किसी भी प्रकारके असत्य वचनको नहीं बोलता है, वह सत्यव्रतका धारक होता है ।। ७९ ॥ न्यास- (धरोहर) का अपहरण करना, कूटलेख लिखना, मिथ्या उपदेश देना, मंत्र भेद करना और एकान्तके रहस्यको प्रकट करना, ये पाँच सत्यव्रतके अतीचार ॥ ८० ॥ वसुराजा दूसरेके आग्रहसे भी असत्य वचन बोलकर अचिन्त्य घोर भयानक वेदनावाले रकमें गया ॥ ८१॥ एब अस्तेयाणुव्रतका वर्णन करते हैं-भवनमें, वनमें या अन्यत्र कहीं भी दूसरेके स्थापित, पतित, विनष्ट या विस्मृत धनको जो ग्रहण नहीं करता है, उसके अस्तेयव्रत माना जाता ॥८२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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