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________________ श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-मत श्रावकाचार प्राणेभ्योऽपि प्रियं वित्तं नृणां प्रत्यक्षमोक्ष्यते । वपुषा स्वं तिरोषाय रक्षति स्तेनतो जनः ॥८३ अदत्तं गृह्णता वित्तं कृपा पूर्वमपाकृता । गुणा विसर्जिताः सर्वे दोषा विश्वेऽपि सचिताः ॥ce हितं चिकीर्षतो नात्र चौरस्य पितरावपि । स्यात्तस्करस्य भीमंत्यं भ्रान्त्या दृष्टे तरावपि ॥८५ शूलारोपादिकं दुःखं सर्वं प्रत्यक्षमैहिकम् । वार्यते केन चौरस्य परलोके च नारकम् ॥८६ चौर्ये निदर्शनीभूताः प्रभूताः श्रीजिनागमे । श्रीभूताद्या निशम्यन्ते सम्प्राप्ताऽऽपत्परम्पराः ॥८७ मत्वेति बहुदोष यः परेषां पतितादिकम् । नादत्तं वित्तमादत्ते स स्याल्लोकद्वये सुखी ॥८८ चौर्याजिताद्धनाद्दूरं निःस्वतैव नृणां वरम् । तक्रपानं न कि चारु सक्ष्वेडक्षीरपानतः ॥ ८९ धत्ते मत्वेति योऽस्तेयव्रतं सौख्याभिलाषुकः । वक्ष्यमाणानतीचारानपि मुचन्तु पश्चशः ॥९० स्तेनप्रयोग-तद्रव्यादाने मानाधिकोनता । विरुद्धराज्यातिक्रान्तिः प्रतिरूपक्रियेति च ॥९१ अथ ब्रह्मचर्यम् मैथुनं यत्स्मरावेशात्तदब्रह्म तदुज्झनम् । परस्त्रीभिर्मतं ब्रह्मचर्याणुव्रतमुत्तमैः ॥९२ तिरवों मानुषों देवों परस्त्रों रमते न यः । पुमान् मनोवचः कायैः स ब्रह्माणुव्रतो भवेत् ॥९३ परस्त्री मातृवत् वृद्धां युवतीं भगिनीमिव । बालां दुहितृवत्पश्यन् बिर्भात ब्रह्म निर्मलम् ॥९४ परस्त्रीषु गतं चक्षुः करोति ब्रह्मणः क्षतिम् । चक्षूरोधो बुधैः सम्यग्विषेयोऽतस्तदिच्छुभिः ॥९५ कटाक्षगोचरे जातु न गम्यं परयोषिताम् । तद्गोचरचराः शीलं जहुर्हरिहरादयः ||९६ ५०७ मनुष्योंको धन अपने प्राणोंसे भी प्यारा प्रत्यक्ष देखा जाता है । यही कारण है कि लोग चोरके भयसे अपने धनको शरीरसे छिपाकर रखते हैं || ८३ || बिना दिये धनको ग्रहण करनेवाला मनुष्य दयाको तो पहिले ही दूर कर देता है, सभी गुणोंको भी विसर्जित कर देता है और सभी दोषोंको संचित करता है ॥ ८४ ॥ माता-पिता भी इस लोकमें, अपने चोर पुत्रका हित नहीं करना चाहते हैं । मनुष्यको भ्रान्तिसे वृक्षके देखनेपर भी चोरके भय उत्पन्न हों जाता है ॥ ८५ ॥ चोरको शूलीपर चढ़ाया जाना आदि इस लोक सम्बन्धी दुःख सर्वके प्रत्यक्ष है । फिर परलोकमें नरकंके " दुःखोंको कौन निवारण कर सकता है ।। ८६ ।। श्री जिनागममें चोरीमें दृष्टान्तभूत श्रीभूति आदि बहुत से लोग सुने जाते हैं जो कि चोरी करनेसे दुःखों और आपत्तियोंकी परम्पराको प्राप्त हुए हैं || ८७ || इस प्रकार चोरीके भारी दोषोंको जानकर जो दूसरोंके पतित, स्थापित, विस्मृत आदि धनको, तथा बिना दिये दूसरेके किसी भी प्रकारके धनको नहीं लेता है, वह दोनों लोकोमें सुखी होता है ॥ ८८ ॥ चोरीसे उपार्जित धनसे तो मनुष्योंके दरिद्रता ही श्रेष्ठ है । विष मिश्रित दुग्ध-पानसे छाँछ पीना क्या अच्छा नहीं है ? अवश्य ही अच्छा है ।। ८९ ।। ऐसा जानकर जो सुखका अभिलाषी पुरुष अस्तेयव्रतको धारण करता है, उसे आगे कहे जाने वाले ये पाँच अतीचार भी छोड़ना चाहिए ॥ ९० ॥ स्तेन प्रयोग, तदाहृतादान होनाधिकमानोन्मान, विरुद्धराज्यातिक्रम और प्रतिरूप क्रिया ॥ २१ ॥ अब ब्रह्मचर्यव्रतको कहते हैं - कामके आवेशसे पर - स्त्रियोंके साथ मैथुन सेवन करना अब्रह्म कहलाता है और उसको त्याग करनेको उत्तम पुरुषोंने ब्रह्मचर्या व्रत कहा है ॥ ९२ ॥ जो मनुष्य तिरश्ची, देवी और परस्त्रीके साथ मन वचन कायसे रमण नहीं करता है, वह ब्रह्मचर्याणुव्रती होता है ।। ९३ ।। वृद्धा परस्त्रीको माता के समान, युवतीको बहिनके समान और बालाको पुत्रीके समान देखनेवाला मनुष्य निर्मल ब्रह्मचर्यको धारण करता है ॥ ९४ ॥ परस्त्रियों पर गई हुई दृष्टि ब्रह्मचयंका विनाश करती है । इसलिए ब्रह्मचर्यकी रक्षाके इच्छुक ज्ञानी जनोंको आँखका निरोध सम्यक् प्रकार करना चाहिए ॥ ९५ ॥ परस्त्रियोंके कटाक्षके गोचर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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