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________________ श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार ५०५ स्थावरान् कारणेनैव निघ्नन्नपि दयापरः । यस्त्रसान् सर्वथा पाति सोऽहिंसाणुवती स्मृतः ॥५८ रूपसौन्दर्यसौभाग्यं स्वर्ग मोक्षं च सत्सुखम् । दयैकैव नृणां दत्ते सदाचारैरलं परैः॥५९ भोजने शयने याने सदा यत्नपरो भवेत् । त्रसरक्षापरो धीरः प्रमत्तस्य कुतो व्रतम् ॥६० प्रेषणी गर्गरी चुल्लीत्यादिजं शोधयेदघम् । प्रायश्चित्तेन नान्यस्मै दद्यादग्न्यादि किञ्चन ॥६१ क्वचित्कश्चित्कस्मैचित्कदाचित् त्रसहिंसनम् । न कुर्यादात्मनो वाञ्छेद्यदि लोकद्वये सुखम् ॥६२ युक्ति जैनागमाद् बुद्ध्वा रक्षायाः सत्त्वसन्ततेः । अप्रमत्तः सदा कूर्यान्मुमुक्षस्त्रसरक्षणम् ॥६३ हेया बन्धो वधच्छेदोऽतिभारारोपणं तथा । अन्नपाननिरोधश्चेत्यतीचारादयालभिः ॥६४ यशोधरनृपो मातुश्चन्द्रमत्या दुराग्रहात् । हत्वा देव्याः पुरः शान्त्यै कुक्कुटं पिष्टिनिर्मितम् ॥६५ अभूत केकी मुगो मत्स्यो द्विश्छागः कर्कटस्ततः । दयाभावादभूद भूयोऽभयरुच्यभिषः सुधी.॥६६ ततोऽभूत्तपसेशाने त्रिदशः परद्धिकः । इत्थं कथाममूं ख्यातां वेत्ति प्रायोजनोऽखिलः ॥६७ प्राणिधातभवं दुःखं सत्त्वरक्षोद्धवं सुखम् । न कियन्तोऽत्र सम्प्रापुः सुप्रसिद्धा जिनागमे ॥६८ मत्वेति पितरः पुत्रानिव ये पान्ति देहिनः । लब्ध्वा नरामरैश्वयं प्राप्नुवन्तीह ते शिवम् ॥६९ अथ सत्यवतम् - असत्यमहितं ग्राम्यं कर्कशं परमर्मभित् । श्रीसिद्धान्तविरुद्धं च वचो बयान सन्मतिः ॥७० होकर शस्त्रोंका पात कैसे करता है ? यह आश्चर्यकी बात है ।। ५७ ॥ कारण-वश स्थावर जीवोंका घात करता भी जो दयाल परुष त्रस जीवोंको मन वचन काय और कृत कारित अनमोदनासे सर्व सकार रक्षा करता है, वह अहिंसाणुव्रती माना गया है ॥ ५८ ॥ अन्य सदाचार तो रहने देवें, एक दया ही जीवको रूप, सौन्दर्य, सौभाग्य, स्वर्गके सुख और मोक्षका उत्तम सुख देती है ॥५९॥ इसलिए सरक्षामें परायण धीर पुरुषको भोजनमें, शयनमें और गमनागमनमें सदा सावधान होना चाहिए। क्योंकि प्रमाद-युक्त पुरुषके व्रत कहाँसे संभव हो सकता है।। ६०॥ पीसनेमें, जल भरनेमें और चूल्हा आदि जलाने में जो पाप उत्पन्न होता है, उसे भी प्रायश्चित्तसे शुद्ध करे । तथा अग्नि, शस्त्र आदि जीव-घात करनेवाली कोई भी वस्तु अन्यको न देवे ॥ ६१ ॥ यदि कोई पुरुष दोनों लोकोंमें अपना हित चाहता है तो कहीं पर, किसी भी प्रकारसे, किसीके भी लिए कभो त्रस जीवकी हिंसा न करे ।। ६२ ।। जोव-समुदायके संरक्षणकी युक्तिको जैन आगमसे जानकर प्रमादरहित हो मुमुक्षुजनोंको सदा त्रस जीवोंकी रक्षा करनी चाहिए ॥ ६३ ॥ जीवोंका वध करना, बाँधना, अंग छेदना, अधिक भार लादना और अन्न-पानका निरोध करना ये पांच अतीचार दयालुजनोंको छोड़ना चाहिए ।। ६४ ।। देखो-यशोधर राजाने अपनी चन्द्रमती माताके दुराग्रहसे शान्ति के लिए देवीके आगे पीठीसे बनाये गये मुर्गेको मारा तो वह आगेके भवोंमें मोर, हरिण, मच्छ, दो बार बकरा और फिर र्गा हआ। अन्तमें दयाके भावसे वह अभयरुचि नामका बुद्धिमान् हुआ और तप करके ईशान स्वर्ग में महाऋद्धिवाला देव हुआ। इस प्रकार इस प्रसिद्ध कथाको प्रायः सभी लोग जानते हैं ।। ६५-६७ ॥ जीव-घातसे उत्पन्न होनेवाले दुःखको और जीवोंकी रक्षासे प्राप्त होनेवाले सुखको कितने लोगोंने इस संसार में नहीं पाया ? उनकी कथाएं जिनागममें सुप्रसिद्ध हैं ॥ ६८ । इस प्रकार जानकर जैसे पिता पुत्रोंकी रक्षा करते हैं, वैसे ही जो. मनुष्य प्राणियोंकी पुत्रवत् रक्षा करते हैं वे मनुष्यों और देवोंके ऐश्वर्यको भोगकर अन्तमें शिवपदको प्राप्त होते हैं ।। ६९ ॥ अब सत्याणुव्रतका वर्णन करते हैं सद्बुद्धिवाले पुरुषको असत्य, अहितकर, ग्रामीण, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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