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________________ ५०४ श्रावकाचार-संग्रह वतान्यथ जिघृक्षन्ति ये शुद्धानि सुबुद्धयः । ते मांसाशनवन्निन्द्यं प्राङ् मुञ्चन्तु निशाशनम् ॥४५ निशाशनं कथं कुर्युस्तत्सन्तः सर्वदोषकृत् । यत्र मृबालजन्त्वाद्या नेक्षन्ते पतिता अपि ॥४६ प्रातर्घटीद्वयादूचे प्राक् सन्ध्याघटिकाद्वयात् । भुञ्जतः शुद्धमाहारं स्यादनस्तमितव्रतम् ॥४७ व्रतस्यास्य प्रभावेन जातं प्रीतिङ्करं मुनिम् । पश्यामं श्रेणिकाध्यक्ष तिर्यवत्वान्मोक्षगामिनम् ॥४८ इत्यं मूलगुणैर्युक्तः सप्तव्यसनजितः । अरात्रिभोजनो भव्यो व्रतादानोचितो भवेत् ॥४९ जीवधातावसत्याच्च चौर्यादब्रह्मचर्यतः । परिग्रहाच्च सर्वविरतिव्रतमुच्यते ॥५० यः सर्वविरतिस्तेभ्यः कथ्यते तन्महाव्रतम् । तच्छास्त्रान्ते प्रवक्ष्यामि सङ्क्षपान्मोक्षकारणम् ॥५१ या देशविरतिस्तेम्यस्तदणुव्रतमिष्यते । धर्तव्यं तत्प्रयत्नेन गार्हस्थोऽपि मुमुक्षुभिः ॥५२ प्राणिरक्षात्परं पुण्यं पापं प्राणिवधात्परम् । ततः सर्वव्रतानां प्राहिंसाव्रतमुच्यते ॥५३ सन्त्येवान्यानि सत्यस्मिन् वतानि सकलान्यपि । न चासत्यत्र जायन्ते मुख्यमेतद्धि तेषु तत् ॥५४ विधेया प्राणिरक्षव सर्वश्रेयस्करी नृणाम् । धर्मोपदेशः सक्षेपो दशितोऽयं जिनागमे ॥५५ वदन्ति वादिनः सर्वे भूतधातेन पातकम् । तमेव हव्यकव्यादि वा दिशन्ति च दुधियः ॥५६ स्वाङ्गे छिन्ने तृणेनापि यस्य स्यात्महतो व्यथा । परस्याङ्गे स शस्त्राणि पातयत्यदयः कथम् ॥५७ नष्ट हुए, वेश्यासे चारुदत्त सेठ विनष्ट हुआ, चोरीसे श्रीभूति मारा गया, शिकारसे ब्रह्मदत्त विनाशको प्राप्त हुआ और परस्त्रीके रागसे रावण नष्ट हुआ। ऐसा जानकर इन सभी व्यसनोंका त्याग करना चाहिए॥४३-४४॥ जो सद्-बुद्धि पुरुष शुद्ध व्रतोंको धारण करनेकी इच्छा करते हैं, उन्हें मांस-भक्षणके समान निन्ध रात्रि-भोजन भी पहिले ही छोड़ देना चाहिए ॥ ४५ ॥ जिस रात्रिमें भोजनमें गिरे हुए बाल, मिट्टी और छोटे प्राणी आदि नहीं दिखाई देते हैं, उस सर्वदोषकारक रात्रि भोजनको सज्जन पुरुष कैसे करेंगे? नहीं करेंगे।। ४६ ।। प्रातःकाल दो घड़ी सूर्योदयके पश्चात् और सन्ध्यासमय दो घड़ीसे पूर्व ही शुद्ध भोजन करनेवाले पुरुषके अनस्तमित व्रत होता है ।। ४७ ।। इस व्रतके प्रभावसे हे श्रेणिक, तिर्य चयोनिसे आये हुए, मोक्षगामी इस प्रीतिकर मुनिको प्रत्यक्ष देखो।। ४८॥ . इस प्रकार मूलगुणोंसे युक्त, सप्त व्यसन-सेवनसे रहित और रात्रिमें भोजन नहीं करनेवाला भव्य पुरुष श्रावकके व्रत ग्रहण करनेके योग्य होता है ।। ४९ ॥ जीव-घातसे, असत्य बोलनेसे, चोरी करनेसे, मैथुन-सेवनसे और परिग्रहसे विरतिको सर्वज्ञदेवने व्रत कहा है ॥ ५० ॥ उक्त पाँचों पापोंसे जो सर्वथा विरति है, वह महाव्रत कहा जाता है। महाव्रतको (पुरुषार्थानुशासन) शास्त्रके अन्तमें मोक्षका कारण होनेसे संक्षेपसे कहूँगा ॥५१॥ उक्त पापोंसे जो एकदेश विरति होती है, वह अणुव्रत कहा जाता है। उन्हें मुमुक्षुजनोंको गृहस्थ अवस्था में प्रयत्नके साथ धारण करना चाहिए ।। ५२ ॥ प्राणि-रक्षासे परम पुण्य होता है और प्राणि-घातसे महापाप होता है, इसलिए सर्वव्रतोंसे पूर्व में अहिंसावत कहा जाता है ।। ५३ ॥ इस अहिंसावतके होने पर अन्य सर्व व्रत होते ही हैं और इसके नहीं होने पर अन्य व्रत नहीं होते हैं, अतः यह अहिंसा व्रत उन सर्व व्रतोंमें मुख्य है ॥ ५४॥ सर्व कल्याण करने वाली यह प्राणि-रक्षा मनुष्योंको सदा करनी ही चाहिए, यह जिनागममें संक्षेपसे धर्मका उपदेश दिखाया गया है ॥ ५५ ॥ सभी अन्य वादी लोग जीव-घातसे पाप कहते हैं, फिर भी वे दुर्बुद्धि उसी को यज्ञादिमें हवन करनेका उपदेश देते हैं ।। ५६ ।। जिसके अपने शरीरमें तृणसे भी हिन्न-भिन्न होने पर भारी पीड़ा होती है, वह परके शरीरमें निर्दय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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