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________________ ४९७ श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार यो दत्ते बहु तुर्याशादानशौण्डः स उच्यते । दशमांशादपि स्वल्पं यो दत्ते सोऽल्पदः स्मृतः॥११९ यथाकालं यथादेशं यथापात्रं यथोचितम् । दानेनेत्यं बुधाः कुर्युः शासनस्य प्रभावनाम् ॥१२० देवो विरागसर्वज्ञस्तस्यार्चा यैमहोत्सवात् । क्रियते तैश्च धीमद्भिः स्याद्धर्मस्य प्रभावना ॥१२१ सदाऽर्चाऽऽष्टाह्निको कल्पद्रुमश्चाथ चतुर्मुखः । इति भेदा जिनार्चायाश्चत्वारो दर्शिता बुधैः ॥१२२ नित्यो नैमित्तिकश्चेति द्विधैवाहन्महामहः । ग्रन्थान्तरात्परिशेयस्तभेदविधिविस्तरः॥१२३ . भक्तैरित्थं यथाशक्ति या देवार्चा विधीयते । तयात्र जायतेऽनूना जिनधर्मप्रभावना ॥१२४ यद्वक्तृत्व-कवित्वाभ्यां शासनोद्धासनं बुधः । कुरुते कथ्यते विद्याप्रभवा सा प्रभावना ||१२५ विद्याधरैश्च या विद्यासामर्थ्येन विधीयते । या ज्योतिनिमित्ताद्यैश्च सा च विद्याप्रभावना ॥१२६ यथाविभवमित्थं यः कुर्याद्धर्मप्रभावनाम् । सद-दृष्टेस्तस्य शक्रोऽपि गुणानौति मुहूदिवि ॥१२७ .. उमिलाया महादेव्या यः समं भ्रामयद् रथम् । तस्य वज्रकुमारस्य बुर्धरत्र कथोच्यताम् ॥१२८ । इति प्रभावना इत्यष्टाङ्गयुत्तं सम्यग्दर्शनं स्याद् भवापहम् । भेषजं किन्न वा हन्ति रुजं सद्रव्ययोगजम् ॥१२९ कृपासंवेगनिर्वेदनिन्दागोपशान्तयः । भक्तिर्वात्सल्यमित्यष्टौ सुदृष्टिविभूयाद गुणान् ॥१३० होन-दोन-दरिद्रेषु बद्धरुद्धषु रोगिषु । इत्यादिव्यसनातेषु कारुण्यं कथ्यते कृपा ॥१३१ दाता कहे हैं ॥ ११८ ॥ जो चतुर्थांशसे भी अधिक धनका दान देता है वह दानशौण्ड (दानशूर या दानवीर) कहा जाता है और जो दशम भागसे भी अल्प दान देता है अल्पदाता कहलाता है ॥११९॥ इस प्रकार ज्ञानियोंको यथाकाल, यथादेश, और यथापात्र यथोचित दान देकरके जिनशासनकी प्रभावना करनी चाहिए ॥ १२० ॥ जो वीतराग सर्वज्ञ देव हैं, उनका जो महान् उत्साहसे बुद्धिमानोंके द्वारा पूजन-विधान किया जाता है वह भी धर्मको प्रभावना है ॥ १२१ ॥ ज्ञानियोंने पूजनके चार भेद कहे हैं-नित्य पूजा, आष्टाह्निकी पूजा, कल्पद्रुमपूजा और चतुर्मुखपूजा ॥ १२२ ॥ तथा नित्यपूजन और नैमित्तिक पूजन इस प्रकार अर्हत्पूजनके दो भेद भी कहे गये हैं। इन पूजनोंके विधि विस्तारको और भेदोंको अन्य पूजा ग्रन्थोंसे जानना चाहिए ।। १२३ । इस प्रकार भक्तजनों के द्वारा जो यथाशक्ति देवपूजा की जाती है, उसके द्वारा भी जिनधर्मकी भारी प्रभावना होती है ॥ १२४ ।। तथा जो वक्तृत्वकला, काव्य-कुशलताके द्वारा विद्वज्जन शासनका प्रकाशन करते हैं, वह विद्या-जनित प्रभावना कही जाती है ॥ १२५ ।। इसी प्रकार विद्याधरोंके.द्वारा विद्याओंकी सामर्थ्य से और ज्योतिष-निमित्त आदिके द्वारा जो प्रभावना की जाती है, वह भी विद्या प्रभावना है।। १२६ ।। इस प्रकार जो अपने विभव और शक्तिके अनुसार धर्मको प्रभावना करता है, उस सम्यग्दृष्टि गुणोंकी इन्द्र भी स्वर्गमें बार-बार प्रशंसा करता है।। १२७ ॥ जिसने उर्मिला महादेवीका रथ एक साथ नगरमें भ्रमण कराया, उस वज्रकुमार मुनिकी कथा यहाँ पर विद्वानोंको कहनी चाहिए ॥ १२८ ॥ (इस प्रकार प्रभावना अंगका वर्णन किया) इन उपर्युक्त आठ अंगोंसे सहित सम्यग्दर्शन संसारका नाशक होता है। औषधि उत्तम द्रव्यके योगसे क्या रोगका विनाश नहीं करती है ? अवश्य ही करती है ।। १२९ ।। कृपा संवेग निर्वेद निन्दा गर्दा उपशम भक्ति और वात्सल्य ये आठ गुण सम्यग्दृष्टियोंको धारण करना चाहिए ॥ १३० ॥ हीन दीन दरिद्र जनों पर, किसीके द्वारा बंधे या रोके गये जीवों पर, रोगियों ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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