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________________ श्रावकाचार-संग्रह स संवेगो मतो भौतिर्या दुःखप्रभवाद भवात् । अनुरागश्च यः सम्यग्देवधर्मागमादिषु ॥१३२ विरक्तिः सामये काये भोगेऽधोगतिकारणे । सर्वासारे च संसारे निर्वेदः प्रतिपाद्यते ॥१३३ अनार्याचरिते कार्ये स्त्रीपुत्रादिकृते कृते।। जायते योऽनुतापो नुः सा निन्दाऽवाद्यनिन्दितैः ॥१३४ कामकोपादिभिर्दोषे जाते या सद्गुरोः पुरः । क्रियेताऽऽलोचना तस्य सा गोऽहंद्भिरीरिता ॥१३५ कारणे सत्यपि रागद्वेषादीनां स्थिते चिरम् । योऽभावो हृदि शान्तास्तामुपशान्ति प्रचक्षते ॥१३६ या सेवा देवराजाविपूजाहेष्वहंदादिषु । विधीयते बुधैः शुद्धस्वान्तैः सा भक्तिरुच्यते ॥१३७ उपरोगोपसर्गायः साधुसार्थे कथिते । तदपायकृतिर्या तद्वात्सल्यं परिलप्यते ॥१३८ । सद-दृष्टिरेभिरष्टाभिविशिष्टभूषितो गुणैः । कान्ताया मुक्तिकान्ताया भवत्याशु स्वयंवरः ॥१३९ इत्यादिभिगुणयुक्तं दोषेर्मोढयादिभिश्च्युतम् । सम्यक्त्वं भङ्गिनां सूते वाञ्छितार्थफलोदयम् ॥१४० तेच के मौढचादयो दोषा यैरुमितं दर्शनं सम्यगित्याह षडनायतनं शङ्कादयोऽष्टाष्ट मदं तथा।। त्रिमौढचं चेति दृग्दोषाः सन्त्याज्याः पञ्चविंशतिः ॥१४१ मिण्याहग्ज्ञानचारित्रत्रयं तद्धारकास्त्रयः । तत्षट्कसेवनं यत्तत्पडनायतनं मतम् ॥१४२ गुणा निःशङ्कितत्वाद्याः प्रागुक्ता ये सविस्तराः।। तदभावोऽत्र शङ्काद्या अष्टौ दोषाः प्रपादिताः ॥ १४३ पर और इसी प्रकार अन्य संकटोंसे पीड़ित जीवों पर करुणाभावको कृपा कहते हैं ।। १३१ ।। इस दुःख उत्पन्न करने वाले संसारसे जो भय उत्पन्न होता है और सच्चे देव, धर्म, आगम आदिमें अनुराग होता है वह संवेग माना गया है ।। १३२ ॥ रोग-युक्त देहमें अधोगतिके कारणभूत भोगोंमें और सर्वथा असार इस संसारसे जो विरक्ति होती है, वह निर्वेद कहा जाता है ।। १३३ ।। अनार्य जनोंके द्वारा आचरण किये गये कार्यमें, स्त्री-पुत्रादिके द्वारा किये गये ( अथवा अपने ही. द्वारा) अनुचित कर्तव्योंमें मनुष्यको जो पश्चात्ताप होता है, उसे उत्तम पुरुष निन्दा कहते हैं॥ १३४ ॥ काम क्रोध आदिके द्वारा किये दोषके हो जाने पर सद्-गुरुके सामने जो अपनी आलोचना की जाती है, उसे अहंन्तोंने गर्दा कहा है ॥ १३५ ॥ राग-द्वेषादिके निमित्त चिरकाल तक विद्यमान रहने पर भी उनका हृदय में अभाव होनेको वीतरागी शान्त पुरुष उपशान्ति या उपशमभाव कहते हैं । १३६ ॥ इन्द्रादिके द्वारा पूज्य अर्हन्त आदिमें शुद्ध चित्तवाले बुद्धिमानोंके द्वारा जो उपासना की जाती है, वह भक्ति कही जाती है ।। १३७ ॥ उग्र रोग या घोर उपसर्ग आदिसे साधु-समूहके पीड़ित होने पर उसके दूर करनेका जो उपाय किया जाता है, वह वात्सल्य कहा जाता हैं ।। १३८ ॥ जो सम्यग्दृष्टि जोव इन आठ विशिष्ट गुणोंसे विभूषित होता है, वह सुन्दर मुक्ति-रमणीका शीघ्र स्वयं वरण करनेवाला होता है ।। १३९ ॥ इत्यादि गुणोंसे युक्त और मूढ़ता आदि दोषोंसे रहित सम्यग्दर्शन प्राणियोंके मनोवांछित फलको देता है ॥ १४० ॥ वे मूढता आदि दोष कोन हैं, जिनसे रहित सम्यग्दर्शन मनोवांछित फल देता है ? इसका उत्तर देते हुए ग्रन्थकार उन दोषोंका प्रतिपादन करते हैं... छह अनायतन, शंकादि आठ दोष, आठ मद और तीन मूढता ये पच्चीस दोष हैं, जिनका सम्यग्दृष्टियोंको त्याग करना चाहिए ॥ १४१ ॥ मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र ये तीन और इनके धारक तीन, इन छहोंकी सेवा करनेको छह अनायतन माना गया है ।। १४२ ॥ जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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