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________________ ४९६ श्रावकाचार-संग्रह यस्तपोदानदेवार्चाविद्यादतिशयैजनैः । क्रियते जिनधर्मस्य महिमा सा प्रभावना ॥१०६ योगमास्थाय तिष्ठन्ति ये हिमतौ चतुष्पथे। ग्रीष्मकालेऽविशृङ्गेषु प्रावृड्युच्चतरोरधः ॥१०७ दुर्द्धराद् व्रतभाराद्ये न चाल्यन्ते परीषहैः । पक्षमासान्तरे भोज्यं भुञ्जन्ते शुद्ध मेव ये ॥१०८ इत्यादिगुणसम्पन्नः शासनस्य जिनेशितुः । तेरेव क्रियते धोरस्तपसा सत्प्रभावना ॥१०९ त्रिविधस्यापि पात्रस्य नयेन विनयेन च। ये सदा ददते दानं ते स्युर्धर्मप्रभावकाः ॥११० महाव्रतः परं पात्रं मध्यमे स्यावणुवतः । जघन्यं तत्सुदृष्टिः स्यात् त्रिविधं पात्रमित्यदः ॥१११ चतुर्षा देयमाहाराभयशास्त्रौषधं मतम् । यथापात्रं परं च स्याद्देयं वस्त्रधनादिकम् ॥११२ पात्रदानं कृपादानं समदानं ततः परम् । परमन्वयदानं चेत्युक्तं दानं चतुर्विधम् ॥११३ चतुर्षा दीयते देयं पात्राय त्रिविधाय यत् । त्रिशुद्धया तद्गुणप्रीत्या पात्रदानं तदिष्यते ॥११४ रोगबन्धनदारिद्रयाऽद्यापद्-व्याप्तिहतात्मनाम् । दीयते कृपया यत्तत्कृपादानमिहोच्यते ॥११५ पुण्यादिहेतवेऽन्योन्यं गृहस्थैर्य द्वितीयते । ताम्बूलाहारवस्त्रादि समदानमभाणि तत् ॥११६ मोक्षायोत्तिष्ठमानो यत्स्वपुत्राय स्वसम्पदम् । दत्ते कुटुम्बपोषायान्वयदानं तदुच्यते ॥११७ तुर्यमंशं परो दत्ते षष्ठं वा स्वस्य मध्यमः । जघन्यो दशमं प्राजाता चेति त्रिधोदितः ॥११८ किये गये अकम्पनाचार्यके संघके विघ्नको क्षणभरमें दूर किया उन विष्णुकुमार मुनिको कथा यहाँ पर कहनी चाहिए ॥ १०५ ।। . (इस प्रकार वात्सल्य अंगका वर्णन किया) जो तप दान देव-पूजा विद्या आदिके अतिशयोंसे लोगोंके द्वारा जिनधर्मकी महिमा की जाती है, वह प्रभावना कही जाती है ।। १०६ ॥ योग धारण करके जो शीतऋतुमें चतुष्पथ पर स्थित रहते हैं, ग्रीष्मकालमें पर्वतोंके शिखरोंपर और वर्षाकालमें वृक्षके नोचे विराजते हैं, जो परोषहोंके द्वारा दुर्धर व्रतभारसे चलायमान नहीं होते हैं । जो पक्ष-मास आदिके अन्तरसे शुद्ध भोजन ही करते हैं, इस प्रकारके तपसे और इसी प्रकाके अन्य गुणोंसे सम्पन्न धीर-वीर पुरुषोंके द्वारा ही जिनेन्द्रदेवके शासनकी सत्प्रभावना की जाती है ।। १०७-१०९ ॥ जो पुरुष तीन प्रकारके सुपात्रोंको नय और विनयसे सदा दान देते हैं, वे धर्मके प्रभावक हैं ॥ ११० ॥ महाव्रती उत्तम पात्र है, अणुव्रतो .मध्यम पात्र है और अविरत सम्यग्दष्टि जघन्य पात्र है, ये तीन प्रकारके पात्र होते हैं ॥ १११ ।। इन तीनों प्रकारके पात्रोंको आहार अभय शास्त्र और औषध रूप चार प्रकारका दान देनेके योग्य माना गया है। तथा पात्रके अनुसार अन्य वस्त्र धनादिक भी देना चाहिए ॥ ११२ ।। तथा पात्रदान, दयादान, समदान और अन्वयदान ये चार प्रकारका और भी दान कहा गया है ॥११३ ॥ तोन प्रकारके सुपात्रोंके लिए त्रियोगको शुद्धिपूर्वक उनके गुणोंमें प्रीतिके साथ जो आहार आदि चार प्रकारका दान दिया जाता है, वह पात्रदान कहा जाता है ।। ११४ ।। रोग, बन्धन, दरिद्रता, आपत्ति आदिसे पीड़ित दुःखी जीवोंको जो दयाबुद्धिसे दान दिया जाता है, वह दयादान कहा जाता है ॥ ११५॥ पुण्य आदिके हेतु गृहस्थोंके द्वारा परस्पर जो ताम्बूल, आहार वस्त्र आदि दिया जाता है, वह समदान कहा गया है ।।११६।। मोक्षके लिए उद्यत होता हुआ गृहस्थ जो अपने पुत्रके लिए कुटुम्ब-पोषणार्थ अपनी सम्पदा देता है, वह अन्वयदान कहा जाता है ।।११७|| जो अपनी आयका चतुर्थांश दान में देता है, वह उत्तम दाता है, जो षष्ठांश दानमे देता है वह मध्यम दाता है और जो दशम भाग देता है वह जघन्य दाता है इस प्रकारसे ज्ञानियोंने तीन प्रकारके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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