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________________ श्रविकाचार-संग्रह सर्वज्ञवीतरागेण तत्त्वमुक्तं सुयुक्ति यत् । तत्तथैवेति घीर्यस्य स हि निःशङ्कितो मतः ॥ ६० पूर्वापराविरुद्धेऽन्मते कः शङ्कते सुधीः । परोक्षको मणौ काचशङ्कां कश्चित् करोति किम् ॥६१ सूक्ष्मे स्वागोचरेऽप्यर्थे वक्तृप्रामाण्यतः कृती । ४९२ न शङ्कां कुरुते जातु यः स निःशङ्कितोत्तमः ॥६२ निः शङ्किततयाक्षार्थ समर्थनरतोऽपि सन् । चौरः खचारितां लब्ध्वाऽञ्जनोऽजनि निरञ्जनः ॥६३ यस्यैकाङ्गेन चौरोऽपि प्रापेत्यविकलं फलम् । सुदर्शनस्य माहात्म्यं तस्य किं किल कथ्यते ॥ ६४ ( इति निःशङ्किताङ्गत्वम् ) तपोदानार्हदर्चादिकृत्यं कुवंश्च यः कृती । नाकाङ्क्षत्यक्षजं सौख्यं स निःकाङ्क्षो बुधैर्मतः ॥६५ . तपः प्रभृतिकृत्येन यः काङ्क्षत्यक्षजं सुखम् । स्वीकरोति स रत्नेन वराकः कुवराटकम् ॥६६ योऽनाकाङ्क्षस्तु सत्कृत्यं कुरुते सुखमक्षजम् । सा तस्यानिच्छतोऽप्यग्रे फलं च सुखमक्षयम् ॥६७ बुहितुः प्रियवत्तस्यानन्तमत्या निरेनसः । निःकाङ्क्षायाः कथा वाच्या श्रुतज्ञैरत्र धोधनैः ॥ ६८ ( इति निःकाङ्क्षत्वम् ) मुनेस्तनुं गव्याप्तां प्रस्वेदाक्तां मलाविलाम् । वीक्याजुगुप्सनं यत्सा मता निर्विचिकित्सता ॥ ६९ मुक्तिको देनेवाले इन आठों अंगोंका स्वरूप संक्षेपसे क्रमश: कहता हूँ ॥ ५९ ॥ सर्वज्ञ वीतराग देवने जैसा सुयुक्ति युक्त तत्त्व कहा है, वह वैसा ही है, अन्यथा नहीं है, इस प्रकारकी दृढ़ प्रतीति वाले जीवके मत में निशंकित अंग माना गया है ।। ६० ।। पूर्वापर विरोधसे रहित अर्हन्त देवके मतमें कौन बुद्धिमान् शंका करता है ? क्या कोई परीक्षक मनुष्य मणिमें काचकी शंका करता ? कभी नहीं ।। ६१ । जो बुद्धिमान् अपने ज्ञानके अगोचर भी सूक्ष्म अर्थ में वक्ताकी प्रमाणतासे कभी भी शंका नहीं करता है, वह निशंकित अंगमें उत्तम है ।। ६२ ।। देखो - इन्द्रियों के समर्थन करने वाले विषयों में संलग्न भी अंञ्जन चोर निःशंकित गुणके द्वारा आकाशगामिनी विद्याको पाकर अन्त में निरंजन हो गया ।। ६३ || जिस सम्यक्त्व के एक अंगके द्वारा चोर भी विशाल फलको प्राप्त हुआ, उस सम्यक्त्वका माहात्म्य क्या कहा जा सकता है ? अर्थात् नहीं कहा जा सकता ॥ ६४ ॥ ( इस प्रकार निःशंकित अंगका वर्णन किया ) । तप दान अर्हत्पूजन आदि सत्कार्योंको करता हुआ भी जो कृती पुरुष उसके फल से इन्द्रियसुखको नहीं चाहता है, वह ज्ञानियोंके द्वारा निःकांक्षित अंगका धारक माना गया है ||६५॥ जो मनुष्य तपश्चारण आदि सत्कृत्य करके उससे इन्द्रिय-जनित सुखको चाहता है, वह दीन मनुष्य रत्नके द्वारा फूटी कौडीको स्वीकार करता है ॥ ६६ ॥ जो इन्द्रिय सुखकी आकांक्षा नहीं करता हुआ सत्कृत्य करता है, उसके अनाकांक्षा अंग होता है । उसके नहीं चाहते हुए भी अक्षय सुख रूप फल आगे स्वयं प्राप्त होता है ॥ ६७ ॥। इस विषय में निष्पाप प्रियदत्त सेठकी आकांक्षा-रहित अनन्तमती पुत्रीकी कथा यहाँ पर बुद्धि-धनवाले शास्त्रज्ञोंको कहनी चाहिए ॥ ६८ ॥ ( इस प्रकार निःकांक्षत्व अंगका वर्णन किया ) । मुनिके रोग-व्याप्त, प्रस्वेद-युक्त और मलसे लिप्त शरीरको देखकर जो ग्लानि नहीं www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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