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श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार
४९१ केचिद् द्विधैव सम्यक्त्वं साध्य-साधनभेदतः । व्याचक्षुः क्षायिकं तत्र साध्यमन्ये तु साधनम् ॥४८ तुर्यात्सर्वेषु गुणस्थानेषु क्षायिक प्राच्यमष्टसु । क्षायोपशमिकं तु स्याच्चतुर्वेव सुदर्शनम् ॥४९ सम्यग्दृष्टिरधःश्वभ्रषट्के स्त्रीष्वखिलाष्वपि । भावनव्यन्तरज्योतिर्देवेषु च न जायते ॥५० तिर्यनरामराणां स्यात् सम्यक्त्वत्रितयं परम् । आद्यमेव द्वयं देव्यस्तिरश्च्यश्वेह बिभ्रति ॥५१
विशेषोऽन्यश्च सम्यक्त्वे भूयान वाच्योऽस्ति नात्र सः।
__ मया सन्दर्शितो ज्ञेयः स जैनागमाद् बुधैः ॥५२ सरागं वीतरागं च तदित्यन्ये द्विधा जगुः । दशधाऽन्यच्च सम्यक्त्वमुक्तमाज्ञादिभेदतः ॥५३ भेदा अन्ये च सन्त्येव सम्यक्त्वस्य जिनागमे । ते तज्जिज्ञासुभिर्जेयास्ततः सर्वे सुविस्तराः ॥५४ कृपा संवेगनिर्वेदाऽऽस्तिक्योपशमलक्षणः । भूषणैरिव सद-दृष्टिभूष्यते पञ्चभिगुणेः ॥५५ सम्यक्त्वं दृष्यते शङ्का-
काङ्क्षाभ्यां विचिकित्सया। प्रशंसया कुदृष्टीनां संस्तुत्या चेति पञ्चभिः ॥५६ अथ निःशङ्कितत्वं प्राङ्ग निःकाङ्क्षत्वमतः परम् ।
ततो निर्विचिकित्सत्वं निर्माढयमुपगहनम् ॥५७ स्थिरीकरणवात्सल्ये शासनस्य प्रभावना । इत्यष्टाङ्गयुतं सूते भयः श्रेयः सुदर्शनम् ॥५८ अतो लक्षणमेषां च कथ्यतेऽनुक्रमान्मया । सङ्क्षपाद्दर्शनाङ्गानामष्टानां मुक्तिदायिनाम् ॥५९
सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक तेतीस सागरकी है । ( तथा जघन्य अन्तमुहूर्तकी है ) ॥ ४६-४७॥
कितने ही आचार्य साध्य और साधनके भेदसे सम्यक्त्वको दो ही प्रकारका कहते हैं । उनमें क्षायिकसम्यक्त्व साध्य और शेष दो को साधन कहते हैं ।। ४८ ॥ चौथे गुणस्थानसे लेकर ऊपरके सभी गणस्थानों में क्षायिकसम्यक्त्व पाया जाता है। प्रथम औपशमिकसम्यक्त्व चौथेसे ग्यारहवें तक आठ गुणस्थानोंमें और क्षायोपशमिक चौथेसे सातवें तक चार गुणस्थानोंमें पाया जाता है ।। ४९ ।। सम्यग्दृष्टि जीव नीचेके छह नरकोंमें, सभी जातिकी स्त्रियोंमें, और भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क देवोंसे नहीं उत्पन्न होता है ॥ ५० ॥ तीनों ही सम्यक्त्ब तिर्यञ्च, मनुष्य और देवोंमें पाये जाते हैं। आदिके दो सम्यक्त्वोंको ही देवियां तिरञ्ची स्त्रियां धारण करती है ॥५१॥ इस सम्यक्त्वके विषयमें बहत-सा वक्तव्य है, किन्तु मैंने उसे यहां नहीं दिखाया है सो उसे ज्ञानी जन जैन आगगसे जानें ।। ५२॥
कितने ही अन्य आचार्य सम्यक्त्वके सराग और वीतराग इस प्रकारसे दो भेद कहते हैं और कितने आचार्य आज्ञा आदिके भेदसे दश प्रकारका भी सम्यक्त्व कहते हैं। इसी प्रकार अन्य भी अनेक भेद जिनागममें हैं ही। उन्हें विशेष जिज्ञासुजन विस्तारके साथ वहाँसे जानें ।।५३-५४॥ दया, संवेग, निर्वेद, आस्तिक्य और उपशमलक्षणरूप पाँच गुणोंसे भूषणोंके समान सम्यग्दृष्टि भूषित होता है ॥ ५५ ॥ शंका कांक्षा विचिकित्सा मिथ्यादृष्टियोंकी प्रशंसा और उनकी संस्तुति इन पाँचसे सम्यक्त्व दूषित होता है ।। ५६ ॥
सम्यग्दर्शनके आठ अंग होते हैं-१. निःशंकितत्व, २. निःकांक्षत्व, ३. निर्विचिकित्सत्व, ४. निमूढत्व, ५. उपगृहन, ६. स्थिरीकरण, ७. वात्सल्य और ८ जिनशासनकी प्रभावना । इन आठों अंगोंसे संयुक्त सम्यग्दर्शन भारी कल्याणको उत्पन्न करता है ।। ५७५८ ॥ इसलिए मैं
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