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________________ ४९. श्रावकाचार-संग्रह अथ धर्म:धर्मो जीवदया सत्यमचौयं ब्रह्मचारिता। परिग्रहप्रहाणं चेत्यतोऽन्योऽस्यैव विस्तरः ॥३६ यत्र मांसं च भक्ष्यं स्यानाभक्ष्यं तत्र किञ्चन । यत्र त्वविधो धर्मः पापं स्यात्तत्र कि मतः ॥३७ इत्थं परोक्ष्यं ये देवगुरुधर्मानुपासते । ते सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयोऽन्येऽपरीक्षकाः ॥३८ कि ते द्वे? जीवाजीवालवा बन्धस्तथा संवर-निर्जरे । मोक्षश्चत्यहतां सप्त तत्त्वान्युक्तानि शासने ॥३९ सम्यग्दर्शनमाम्नातं तेषां श्रद्धानमञ्जसा । तदश्रद्धानमाख्यातं मिथ्यात्वं जगदुत्तमैः ॥४० । तत्त्वानि जिनसिद्धान्ताज्जेयानि जैः सविस्तरम् । तन्यते नात्र तभेदख्यापना भूयसो यतः ॥४१ पर्याप्तः संज्ञिपञ्चाक्षो लब्धकालादिलब्धिकः । भव्यः स्वतोऽधिगत्या वा सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ॥४२ तदौपशमिकं पूर्व क्षायोपशमिकं ततः । क्षायिकं चेति सम्यक्त्वं त्रिविधं योगिनो जगुः ॥४३ उपशान्तासु दुष्टासु प्रकृतिष्वत्र सप्तसु। भवेऽर्धपुद्गलावतें सत्ये सत्यौपशमिकं भवेत् ॥४४ सम्यक्त्वस्योदये षण्णां प्रशमेऽनुदये सति । क्षायोपशमिकं स्यान्नुः षषष्टयब्ध्युत्तमस्थितिः॥४५ सप्तानां संक्षये तासां क्षायिकं जिनसन्निधौ । भवेत्सम्यक्त्वमाद्ये तु सर्वकालेषु सम्मते ॥४६ पराऽप्यपरा च पूर्वस्य स्थितिरान्तर्मुहत्तिकी । क्षायिकस्य त्रयस्त्रिशदब्धयः साधिका पराः ॥४७ अब धर्मका स्वरूप कहते हैं-जीवोंकी दया करना, सत्य बोलना, चोरी नहीं करना, ब्रह्मचर्य पालना और परिग्रहका त्याग करना यह धर्म है। शेष क्षमा, मार्दव आदि तो इसी धर्मका विस्तार है ।। ३६ ॥ जहां प्राणियोंका घात करना धर्म हो, वहाँ पाप किसे माना जायगा? जिस मतमें मांस भक्ष्य है, उसमें अभक्ष्य तो कुछ भी नहीं रह जाता है ।। ३७ ॥ इस प्रकारसे जो परीक्षा करके देव गुरु और धर्मकी उपासना करते हैं, वे सम्यग्दृष्टि हैं। अपरीक्षक अन्य जन हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं ।। ३८ ॥ उन सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिका क्या स्वरूप है ? ऐसा प्रश्न किये जाने पर ग्रन्थकार उत्तर देते हैं-जीव अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व अर्हन्तोंके शासनमें कहे गये हैं। इनके दृढ़ श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहा गया है और इनके अश्रद्धानको ही लोकोत्तम पुरुषोंने मिथ्यात्व कहा है ।। ३९-४० ।। इन सातों तत्त्वोंको विस्तारके साथ जिन-सिद्धान्तसे जानना चाहिए, इसलिए उनके भेदोंकी बहुत व्याख्या यहाँ नहीं की जाती है ।। ४१ ।। पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय और काललब्धि आदिको प्राप्त भव्य जीव स्वतः और अधिगमसे सम्यक्त्वको प्राप्त करता है।॥ ४२ ॥ उस समय सर्वप्रथम औपशमिक सम्यक्वको प्राप्त करता है, तत्पश्चात् क्षायोपशमिकको और तत्पश्चात् क्षायिक सम्यक्त्वको प्राप्त करता है। इस प्रकार योगियोंने तीन प्रकारका सम्यक्त्व कहा है ।। ४३ ॥ चारित्र मोहनीय कर्मकी चार अनन्तानुबन्धी कषाय और तीन दर्शनमोहनीय तीनों प्रकृतियाँ इन सात दुष्ट प्रकृतियोंके उपशान्त होने पर और संसारके अर्ध पुद्गलपरावर्तन काल शेष रह जाने पर ही औपशमिक सम्यक्त्व होता है, इससे पहले नहीं होता॥४४ ॥ सम्यक्त्व प्रकृतिके उदय होने पर और शेष छह प्रकृतियोंके अनुदय रूप उपराम होने पर जीवके क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । इसकी उत्कृष्ट स्थिति छयासठ सागरोपम काल है और जघन्य अन्तमुहूर्तकी है ।। ४५ ॥ जिनेन्द्रके समीप उक्त सातों प्रकृतियोंके क्षय होने पर क्षायिक-सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । हे सद्बुद्धिशालिन्, आदिके दोनों सम्यक्त्व सभी कालोंमें उत्पन्न होते हैं। प्रथम सम्यक्त्वकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तमुहूर्तकी है । क्षायिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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