________________
श्री पं० गोविन्दविरचित पुरुषार्थानुशासन-गत श्रावकाचार . स्वभावतोऽपटुः कायः सप्तधातुमयोऽशुचिः।
धोतोऽपि संस्कृतोऽप्येष सौन्दर्य जातु नच्छति ॥७० . कायस्योपकृतिर्येन तेनापकृतिरात्मनः । तनूपकृतिकृत किञ्चिन्मुनयस्तन्न तन्वते ॥७१ प्राच्यकर्मविपाकोत्थदुष्टकुष्टादिभिर्गदैः । व्याप्तमप्यमलाचारधारिणां सुन्दरं वपुः ॥७२ न तु स्नानादिशृङ्गारसारहारादिभूषणः । भूषितं च वपुः शस्यं दुराचारपराङ्गिनाम् ॥७३ मत्वेति जैनसाधनां वीक्ष्य रोगादितां तनुम् । यथोचितं चिकित्सन्ति भव्या. सुजनोत्तमाः ७४ . गुणानुरागिणो ये स्युरित्थं निविचिकित्सकाः । स्थिरीभवति सम्यक्त्वरत्नं तेषां मनोगृहे ॥७५ मायर्षेर्यः स्वहस्ताभ्यां प्रत्येच्छच्छदितं स्वयम् । तस्योबायनराजस्य प्राजर्वाच्याऽत्र सत्कथा ॥७६
(इति निविचिकित्सत्वम् ) कुर्वत्यपि जने चित्रं विद्यामन्त्रौषधादिभिः। न मिथ्याशि यो रागः सम्मतामढताऽत्र सा ॥७७ असर्वज्ञेषु देवेषु गरुष्वक्षसुखाथिषु । धर्मे च विकपे लोकश्चन्न मूढो रमेत कः ॥७८ इन्द्रियार्थरतः पापैर्हा कुमार्गोपवेशिभिः । प्रियोक्तिभिर्जनो मूढो वञ्च्यतेऽयं वरिव ॥७९ शास्त्राभासोदितैरथैत्वेिति यो] न मुह्यति । सम्मतः सन्मतिः सोऽयममूढः प्रौढबुद्धिभिः ॥८० ब्रह्मचारिणि रूपाणि ब्रह्मविष्ण्वीश्वराहताम् । धृत्वाऽऽयातेऽपि याऽनाध्यन्मोढणं सात्र निदर्शनम् ॥८१
(रेवतीति शेषः। निर्माढयम) करना, वह निर्विचिकित्सता मानी गई है ॥ ६९ ॥ यह शरीर स्वभावसे जड़ है, सात धातुओंसे निर्मित है, अपवित्र है । यह जलसे धोने पर और तेल आदिसे संस्कार करने पर भी कभी सौन्दर्यको प्राप्त नहीं होता है, अर्थात् पवित्र नहीं होता ॥ ७० ॥ जिसने कायका उपकार किया, समझो उसने अपनी आत्माका अपकार किया। इसलिए मुनिगण शरीरके कुछ भी उपकारको नहीं करते हैं ।। ७१ ।। पूर्व भव-संचित कर्मके विपाकसे उत्पन्न हुए भयंकर कोढ़ आदि रोगोंसे व्याप्त भी निर्मल चारित्र-धारक मनुष्योंका शरीर सुन्दर ही माना जाता है ।। ७२ ॥ किन्तु जो दुराचारमें तत्पर हैं, उनका स्नानादि करके श्रृंगार हार, पुष्प आभूषणादिसे भूषित भी शरीर प्रशंसनीय नहीं माना जाता है ।। ७३ ॥ ऐसा समझ कर जैन साधुओंके रोगसे पीड़ित शरीरको देखकर उत्तम सज्जन भव्य पुरुष यथोचित चिकित्सा करते हैं ।। ७४ ॥ जो मनुष्य इस प्रकारसे गुणानुरागी होकर ग्लानि-रहित होते हैं, उनके ही मनोगहमें सम्यक्त्वरत्न स्थिर रहता है॥ ७५ ॥ मायावी मुनिके वमनसे व्याप्त शरीरको जिसने अपने दोनों हाथोंसे साफ किया, उस उदायन राजाकी कथा यहाँ पर विद्वानोंको कहनी चाहिए ॥ ७६ ॥
( इस प्रकार निर्विचिकित्सा अंगका वर्णन किया) विद्या मंत्र और औषधि आदिके द्वारा लोगोंके आश्चर्यजनक कार्य करने पर भी जो उस मिथ्याष्टिमें राग नहीं करना, वह यहां अमूढ़ता मानी गई है ।।७७॥ सर्वज्ञतारहित देवमें, इन्द्रियसुखके इच्छुक गुरुओंमें और विकृत-हिंसामयी धर्ममें यदि मूढ़ जन नहीं रमेगा, तो और कौन बुद्धिमान् रमेगा ।। ७८ ।। इन्द्रियोंके विषयोंमें आसक्त और कुमार्गका उपदेश देनेवाले पापी जनोंके द्वारा हाय, बड़ा कष्ट है कि उनके प्रिय वचनोंसे यह मूढ़ जन ठगा जाता है, जैसे कि बगुलोंसे मूढ़मत्स्य ठगाये जाते हैं ।। ७९ ।। ऐसा जान कर मिथ्या शास्त्रों द्वारा प्रकट किये गये अर्थोसे जो मोहित नहीं होता है, उसे ही प्रौढ़ बुद्धिवाले मनुष्य अमूढदृष्टि सन्मति वाला कहते हैं ।। ८०। देखो-उस ब्रह्मचारीके द्वारा ब्रह्मा, विष्णु, महेश और जिनेश्वरके रूपोंको धारण करके आने पर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org