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________________ ४७८ श्रावकाचार-संग्रह त्यक्तपुण्यस्य जीवस्य पापास्रवो भवेद्ध्वम् । पापबन्धो भवेत्तस्मात् पापबन्धाच्च दुर्गतिः ॥१७१ पुण्यहेतुस्ततो भव्यैः प्रकर्तव्यो मनीषिभिः । यस्मात्प्रगम्यते स्वर्गमायुबंन्धोज्झितैर्जनैः ॥१७२ तत्रानुभूय सत्सौख्यं सर्वाक्षार्थप्रसाधकम् । ततश्च्युत्वा कर्मभूमौ नरेन्द्रत्वं प्रपद्यते ॥१७३ लक्षाश्चतुरशीतिः स्युर टादश च कोटयः। लक्षं चतुःसहस्रोनं गजाश्वान्तःपुराणि च ॥१७४ निधयो नव रत्नानि प्रभवन्ति चतुर्दश । षट्खण्डभरतेशित्वं चक्रिणां स्युविभूतयः ॥१७५ जरत्तुणमिवाशेषां संत्यज्य राज्यसम्पदम् । अत्युत्कृष्टतपोलक्ष्मीमेवं प्राप्नोति शुद्धदृक् ॥१७६ भस्मसात्कुरुते तस्माद्धातिकर्मेन्धनोत्करम । सम्प्राप्याईन्त्यसल्लक्ष्मी मोक्षलक्ष्मीपतिभवेत् ॥१७७ ईदग्विधं पदं भव्य सर्व पुण्यादवाप्यते । तस्मात्पुण्यं प्रकर्तव्यं यत्नतो मोक्षकाइक्षिणा ।।१७८ एवं संक्षेपतः प्रोक्तं यथोक्तं पूर्वसूरिभिः । देशसंयमसम्बन्धिगुणस्थानं हि पञ्चमम् ।।१७९ इति पञ्चमं विरताविरतसझं गुणस्थानम् । . ध्यान दोनोंसे जाता है ।। १७० ॥ क्योंकि जो पुरुष पुण्यकार्यका त्याग करेगा, उसके पापका आस्रव नियमसे होगा। पापासवसे पापकर्मोंका बन्ध होगा और पापकर्मोके बन्धसे दुर्गति होगी ॥ १७१ ।। इसलिए बुद्धिमान भव्योंको सदा ही पुण्यके कारणभूत कार्य करते रहना चाहिए, जिससे कि अन्य गतियोंके आयुर्बन्धसे रहित होकर जीव स्वर्गको जाते हैं ।। १७२ ॥ वहाँपर सर्व इन्द्रियोंके अर्थ-साधक उत्तम सुखको भोगकर, और वहाँसे च्युत होकर कर्मभूमिमें नरेन्द्रपना (चक्रवर्तीपना) प्राप्त होता है ।। १७३ ॥ उस चक्रवर्तीके चौरासी लाख हाथी, अठारह कोटि घोड़े, और चार हजार कम एक लाख अर्थात् छियानबे हजार रानियाँ अन्तःपुरमें होती हैं ।। १७४ ॥ उसके नौ निधियां और चौदह रत्न होते हैं, तथा छह खण्डरूप भरत क्षेत्रका स्वामीपना होता है। इस प्रकारको चक्रवर्तियोंको विभूति होती है ।। १७५ ।। इस सर्व राज्य सम्पदाको भी वह सम्यक्त्वी जीर्ण तृणके समान छोड़कर अति उत्कृष्ट तपोलक्ष्मीको प्राप्त होता है ।। १७६ ।। उस तपोऽग्निसे वह घातिकर्मरूप इन्धनको भस्मसात् कर देता है और आर्हन्त्यलक्ष्मीको प्राप्तकर अन्तमें मोक्षलक्ष्मीका पति होता है ।। १७७ ॥ हे भव्य, इसप्रकारका सर्व सुख और परमपद पुण्यसे ही प्राप्त होता है, इसलिए मोक्षके इच्छुक जीवको पुण्य करने में सदा यत्न करना चाहिए ॥ १७८ ॥ इस प्रकार देश संयम-सम्बन्धी पंचम गुणस्थानका स्वरूप जैसा प्राचीन आचार्योंने कहा, उसी प्रकार मैंने संक्षेपमें कहा है ।। १७९ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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