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________________ श्री वामदेवविरचित संस्कृत-भावसंग्रह चतुर्णामनुयोगानां जिनोक्तानां यथार्थतः । अध्यापनमधोतिर्वा स्वाध्यायः कथ्यते हि सः ॥ १५९ प्राणिनां रक्षणं त्रेधा तथाक्षप्रसाराहतिः । एकोद्देशमिति प्राहुः संयमं गृहमेधिनाम् ॥ १६० उपवास: सकृत्युक्तिः सौवीराहारसेवनम् । इत्येवमाद्यमुद्दिष्टं साधुभिगृहिणां तपः ॥१६१ कर्माण्यावश्यकान्याहुः षडेवं गृहचारिणाम् । अधः कर्मादिसम्पातदोषविच्छित्तिहेतवे ॥ १६२ षट्कर्मभिः किमस्माकं पुण्यसाधनकारणैः । पुण्यात्प्रजायते बन्धो बन्धात्संसारता यतः ॥ १६३ निजात्मानं निरालम्बध्यानयोगेन चिन्त्यते । येनेह बन्धविच्छेदं कृत्वा मुक्ति प्रगम्यते ॥ १६४ वदन्ति गृहस्थानामस्ति ध्यानं निराश्रयम् । जैनागमं न जानन्ति दुधियस्ते स्ववञ्चकाः ॥ १६५ निरालम्बं तु यद्धयानमप्रमत्तयतीशिनाम् । बहिर्व्यापारमुक्तानां निर्ग्रन्थजिनलिङ्गिनाम् ॥१६६ गृहव्यापारयुक्तस्य मुख्यत्वेनेह दुर्घटम् । निर्विकल्पचिदानन्दं निजात्मचिन्तनं परम् ॥ १६७ गृहव्यापारयुक्तेन शुद्धात्मा चिन्त्यते यदा । प्रस्फुरन्ति तदा सर्वे व्यापारा नित्यभाविताः ॥ २६८ अथ चेन्निश्चलं ध्यानं विधातुं यः समीहते । ढिकुलीसन्निभं तद्धि जायते तस्य देहिनः ॥ १६९ पुण्यहेतुं परित्यज्य शुद्धध्याने प्रवर्तते । तत्र नास्त्यधिकारित्वं ततोऽसावुभयोज्झितः ॥ १७० . वैयावृत्य की जाती है, वह गुरूपास्ति या गुरु-सेवारूप गृहस्थका आवश्यक कर्तव्य है ।। १५८ ॥ जिनदेव - प्ररूपित चारों अनुयोगरूप शास्त्रों का भक्तिपूर्वक यथार्थ रीति से जो अध्ययन और अध्यापन किया जाता है, वह स्वाध्याय नामका आवश्यक कर्तव्य है ।। १५९ ।। ४७७ प्राणियों की मन वचन कायसे रक्षा करना और इन्द्रियोंके विषयोंमें बढ़ते हुए प्रसारको रोकना इसे गृहस्थोंका एक देश संयम कहते हैं ॥ १६० ॥ पर्व आदिके दिनोंमें उपवास करना, एक बार भोजन करना, सौवीर आहारका सेवन करना, इत्यादिको साधुजनोंने गृहस्थका तप कहा है ।। १६१ ।। इस प्रकार गृहस्थोंके ये छह आवश्यक कर्तव्य अधःकर्म आदिसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंके विनाशके लिए आचार्योंने कहे हैं ।। १६२ ॥ जो लोग यह कहते हैं कि पुण्योपार्जनके कारणभूत इन छह आवश्यकोंसे हमें क्या प्रयोजन हैं ? क्योंकि पुण्यसे तो कर्म-बन्ध होता है और बन्ध होनेसे संसारपना बढ़ता है ॥ १६३ ॥ इसलिए हम तो निरालम्ब ध्यानके योगसे अपनी आत्माका हो चिन्तवन करते हैं, जिससे कि कर्मबन्धका विच्छेद करके मुक्ति प्राप्त की जाती है || १६४ ।। इस प्रकारसे जो 'गृहस्थोंके निराश्रय (निरालंब) ध्यान होता है, ऐसा कहते हैं, वे दुर्बुद्धि आत्म-वंचक हैं, क्योंकि वे जैन आगमको नहीं जानते हैं || १६५ || निरालम्ब ध्यान तो अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनिराजोंके होता है, जो कि सभी बाहिरी व्यापारोंसे रहित हैं और निर्ग्रन्थ लिङ्गको धारण करते हैं ।। १६६ ॥ निर्विकल्प चिदानन्दस्वरूप अपनी आत्माके चिन्तनरूप वह निरालम्ब ध्यान मुख्यरूपसे गृह व्यापारसे युक्त गृहस्थके दुर्घट (दुःसाध्य) है || १६७ | गृहस्थपद से युक्त गृहस्थ जब शुद्ध आत्माका चिन्तवन करता है, तभी नित्य-भावित प्रतिदिन के अभ्यस्त सभी गृह व्यापार मनमें प्रस्फुरित होने लगते हैं ॥ १६८ ॥ यदि कोई पुरुष निश्चल ध्यान करनेकी इच्छा करता है, तो उसका वह प्रयत्न ढिकुलीके सदृश होता है । भावार्थ - जैसे ढिकुली धानके कूटने में लगी रहती है, परन्तु उससे उसे कोई लाभ नहीं होता, किन्तु परिश्रममात्र ही होता है । उसी प्रकार निरालम्ब ध्यान करनेवालोंका परिश्रम भी मनमें गृह व्यापारों के जागते रहने से व्यर्थ जाता है ।। १६९ ।। इसीलिए जो पुण्यके कारणोंका परित्याग करके शुद्ध ध्यान में प्रवृत्ति करता है, उसका उसमें अधिकार नहीं है । ऐसा करनेवाला पुण्य और 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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