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________________ - श्रावकाचार-संग्रह एवं स्युद्वयूं नपञ्चाशल्लवणाब्धितटद्वयोः । कालोदजलधौ तद्वद्वीपाः षण्णवतिः स्मृताः ॥१४७ एकोरुका गुहावासाः स्वादुमृन्मयभोजनाः । शेषास्तरुतलावासाः पत्रपुष्पफलाशिनः ॥१४८ न जातु विद्यते येषां कृतदोषनिकृन्तनम् । उत्पादोऽत्र भवेत्तेषां कषायवशगात्मनाम् ।।:४९ त्रिकलम सूतकाशुचिदुर्भावव्याकुलादित्वसंयुताः । पात्रे दानं प्रकुर्वन्ति मूढा वा गर्विताशयाः ॥१५० पञ्चाग्निना तपोनिष्ठा मौनहीनं च भोजनम् । प्रीतिश्चान्यविवादेषु व्यसनेष्वतितीवता ॥१५१ दानं च कुत्सिते पात्रे येषां प्रवर्तते सदा । तेषां प्रजायते जन्म क्षेत्रेतेषु निश्चितम् ॥१५२ उत्पद्यन्ते ततो मृत्वा भावनादिसुरत्रये । मन्दकषायसद्भावात् स्वभावार्जवभावतः ॥१५३ मिथ्यात्वभावनायोगात्ततश्च्युत्वा भवार्णवे । वराकाः सम्पतन्त्येव जन्मनक्रकुलाकुले ॥१५४ अपात्रे विहितं दानं यत्नेनापि चतुर्विधम् । व्यर्थीभवति तत्सर्वं भस्मन्याज्याहुतिर्यथा ॥१५५ अब्धौ निमज्जयत्याशु स्वमन्यान्नौर्देषन्मयो । संसाराब्धावपात्रं तु तादृशं विद्धि सन्मते ॥१५६ पात्रे दानं प्रकर्तव्यं ज्ञात्वैवं शुद्धदृष्टिभिः । यस्मात्सम्पद्यते सौख्यं दुर्लभं त्रिदशेशिनाम् ॥१५७ क्रियते गन्धपुष्पाद्यैर्गुरुपादाब्जपूजनम् । पादसंवाहनाद्यं च गुरूपास्तिर्भवत्यसौ ॥१५८ इतने ही अन्तर्वीप धातकीखण्डके निकटवर्ती लवणसमुद्र में होते हैं । इस प्रकार लवणसमुद्रके दोनों तट भागों पर उसकी संख्या दो कम पचास अर्थात अडतालोस होती है। तथा कालोद समद्रमें भी दोनों ओर इसी प्रकार अड़तालीस अन्तर्वीप होते हैं। इस प्रकार सब मिलाकर छ्यानबे अन्तर्वीप माने गये हैं ।। १४६-१४७॥ इनमें एकोरुक और गुहावासी कुमानुष तो वहाँकी उत्तम स्वादवाली मिट्टीका भोजन करते हैं और शेष कुमानुष वृक्षोंके पत्र, पुष्प और फलोंको खाते हैं ।। १४८ ॥ किये गये दोषोंका विनाश इनके जीवन में कभी नहीं होता है, क्योंकि वहाँपर कषायके वशको प्राप्त जीवोंकी ही उत्पत्ति होती है। १४२ ॥ जो मूढजन सूतक-पातक, अशोच, दुर्भाव, व्याकुलता आदिसे संयुक्त होते हुए दान करते हैं, अथवा अहंकारसे भरे हृदयसे दान देते हैं, पंचाग्नि तपमें निष्ठा रखते हैं, मौनके बिना भोजन करते हैं, दूसरोंके वाद-विवादमें प्रीति रखते हैं, व्यसनों में अति तीव्र आसक्ति रखते हैं और सदा ही खोटे पात्रोंमें दान देते रहते हैं, उनका जन्म ऊपर कही गई कुभोगभूमि रूप क्षेत्रोंमें होता है, यह निश्चित है ।। १५०-१५२ ॥ कुभोगभूमिसे मरकर वे जीव मन्द कषायके सद्भावसे और स्वभावके सरल होनेसे भवनत्रिक देवोंमें उत्पन्न होते हैं ॥ १५३ ।। तत्पश्चात् वहाँसे च्युत होकर मिथ्याःभावनाके योगसे वे दीन प्राणी जन्म-जरारूप मगरमच्छोंसे भरे हुए इस संसार-समुद्र में गोते खाते रहते हैं । १५४ ॥ '. अपात्रमें यत्नपूर्वक भी दिया गया चारों प्रकारका सभी दान व्यर्थ होता है, जैसे कि भस्म (राख) में दी गई घीको आहुति व्यर्थ जाती है ।। १५५ ।। जिस प्रकार पत्थरसे बनी नाव अपने आपको और उसमें बैठे हुए लोगोंको समुद्र में शीघ्र डुबाती है, उसी प्रकार अपात्रमें दिया गया दान उसे और दातार दोनोंको ही संसार-सागरमें डुबा देता है, हे सद्बुद्धिवाले भव्य, यह तू निश्चितरूपसे जान ।। १५६ ॥ इसलिए अपात्र और कुपात्र-दाताका ऐसा फल जानकर शुद्ध सम्यग्दृष्टि गृहस्थोंको पात्रमें ही दान करना चाहिए, जिससे कि इन्द्रादि दुर्लभ सुखोंकी प्राप्ति होती है ॥ १५७ ॥ : गन्ध-पुष्पादिसे जो गुरुके चरण-कमलोंकी पूजा की जाती है, उनके पैरोंकी संवाहन आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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