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________________ ४७५ श्री वामदेवविरचित संस्कृत-भावसंग्रह मद्यवाद्याङ्गदीपाङ्गा वस्त्रभाजनमाल्यदाः । ज्योतिर्भूषागृहागाश्च दशधा कल्पपावपाः ॥१३३ . पुण्योपचितमाहारं मनोज्ञं कल्पितं यथा । लभन्ते कल्पवृक्षेभ्यस्तत्रत्या देहधारिणः ॥ १३४ दानं हि वामदृग्वीक्ष्य कुपात्राय प्रयच्छति । उत्पद्यते कुदेवेषु तिरक्षु कुन रेष्वपि ॥१३५ मानुषोत्तरबाह्ये ह्यसंख्यद्वीपवाधिषु । तिर्यक्त्वं लभते नूनं देही कुपात्रदानतः ॥१३६ ।। निन्द्यासु भोगभूमोषु पल्यप्रमितजीविनः । नग्नाश्च विकृताकारा भवन्ति वामदृष्टयः ॥१३७ लवणाब्धेस्तटं त्यक्त्वा शतध्नी पञ्चयोजनीम् । दिग्विदिक्षु चतसृषु पृथक्कुभोगभूमयः ॥१३८ सैकोरुकाः सशृंगाश्च लांगुलिनश्च मूकिनः । चतुर्दिक्षु वसन्त्येते पूर्वादिक्रमतो यथा ॥१३९ विदिक्षु शशकर्णाख्याः सन्ति शष्कुलिकणिनः । कर्णप्रावरणाश्चैव लम्बकर्णाः कुमानुषाः ॥१४० शतानि पञ्च सार्धानि सन्त्यज्य वारिधेस्तटम् । अन्तरस्थदिशास्वष्टौ कुत्सिता भोगभूमयः ॥१४१ सिंहाश्वमहिषोलूकव्याघ्रशकरगोमुखाः । कपिवक्त्रा भवन्त्यष्टो दिशानामन्तरे स्थिताः ॥१४२ वेद्यायाः षट्छतों त्यक्त्वा द्वौ द्वावुभयोदिशोः । हिमाद्रिविजयार्धाद्रितारादिशिखर्यद्रिषु ॥१४३ हिमवद्विजयार्धस्य पूर्वापरविभागयोः । मत्स्यकालमुखा मेघविद्युन्मुखाश्च मानवाः ॥१४४ विजयाधशिखर्यदिपाश्र्वयोरुभयोरपि । हस्त्यादर्शमुखा मेघमण्डलाननसन्निभाः ॥१४५ चतुविशतिसंख्याका भवन्ति मिलिता इमाः । तावन्त्यो धातकीखण्डनिकटे लवणार्णवे ॥१४६ भद्रमिथ्यादृष्टि जीव मध्यम और जघन्य पात्रोंमें दान देनेसे मध्यम और जघन्य भोगभूमियोंके भोगोंको और महान् जीवनको प्राप्त होते हैं ॥ १३२ ॥ भोगभूमिमें मद्याङ्ग, वाद्याङ्ग, अङ्गरागाङ्ग, दीपाङ्ग, वस्त्राङ्ग, भाजनाङ्ग, माल्याङ्ग, ज्योतिरङ्ग, भूषाङ्ग, और गृहाङ्ग जातिके दश प्रकारके कल्पवृक्ष होते हैं ।। १३३ ।। (ये कल्पवक्ष क्रमशः मद्य, वाद्य, अंगराग (विलेपनादि), दीप, वस्त्र, पात्र, माला, ज्योति, भूषण और गृहको देते हैं ।) उक्त कल्पवृक्षोंसे वहांके देहधारी जीव पुण्योपाजित उचित. मनोज और मनोवांछित आहारको प्राप्त करते हैं॥१३४॥ जो मिथ्यादष्टि जीव कुपात्रके लिए दानको देता है, वह कुदेवोंमें, या कुमानुषोंमें या कुतियंचोंमें उत्पन्न होता है ॥१३५॥ यदि कुपात्रदानसे मनुष्य तिर्य चोंमें उत्पन्न होता है तो मानुषोत्तर शैलसे बाहिर जो असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं, उनमें नियमसे तिर्य चपना पाता है || १३६ ॥ यदि मिथ्यादृष्टि मनुष्य कुपात्रोंको दान देते हैं तो वे निन्द्य कुभोगभूमियोंमें उत्पन्न होते हैं जो एक पल्योपमकी आयुवाले, नग्न और विकृत आकारवाले होते हैं । १३७ ।। ये कुभोगभूमियाँ लवण समुद्रके तटको छोड़कर आगे पांच सो योजन जाकरके चारों दिशा-विदिशाओंमें पृथक्-पथक हैं ।। १३८ । उनमें पूर्व आदिके क्रमसे चारों दिशाओंमें एकोरुक, शृङ्गवाले, पूंछवाले और मूक (अभाषक) कुमानुष रहते हैं ॥ १३९ ॥ चारों विदिशाओंमें शशकर्ण, शष्कुलीकर्ण, कर्णप्रावरण और लम्बकर्णवाले कुमानुष रहते हैं ॥१४॥ लवणसमुद्र के तटको साढ़े पांच सौ योजन छोड़कर आगे जाकर चारों दिशाओंमें और चारों विदिशाओं मे आठ जातिके कुभोगभूमिज कुमानुष रहते हैं ॥१४१।। वे सिंह, अश्व, महिष, उलूक, व्याघ्र, शकर, गोमुख और कपिमुख होते हैं। ये आठों कूमानुष अन्त:पके दिशाओं और अन्तदिशाओमें रहते हैं॥ १४२।। लवणसमद्रकी वेदीसे छह सौ योजन आगे जाकर हिमवान पर्वत. विनयार्धपर्वत, ताराद्रि और शिखराद्रिके दोनों दिशाओंमें दो-दो करके अवस्थित हैं ।। १४३ ॥ हिमवान् और विजयार्धके पूर्वापर भागमें मत्स्यमुख, कालमुख, मेघमुख और विद्युन्मुख कुमानुष रहते हैं ॥ १४४ :। विजया और शिखरी पर्वतके दोनों पार्श्व भागोंमें हस्तिमुख, आदर्शमुख, मेघमुख और मण्डलमुख सदृरः कुमानुष रहते हैं ॥ १४५ ॥ ये सबकी संख्या मिलकर चौबीस होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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