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________________ ४७४ श्रावकाचार-संग्रह अकृत्रिमेषु चैत्येषु कल्याणेषु च पञ्चसु । सुविनिर्मिता पूजा भवेत्सेन्द्रध्वजात्मिका ॥११९ महोत्सवमिति प्रोत्या प्रपञ्चयति पञ्चधा । स स्यान्मुक्तिवधूनेत्रप्रेमपात्रं पुमानिह ॥१२० वानमाहारभैषज्यशास्त्राभयविकल्पतः । चतुर्धा तत्पृथक् त्रेधा त्रिधापात्रसमाश्रयात् ॥१२१ एषणाशुद्धितो दानं त्रिधा पात्रे प्रदीयते । भवत्याहारदानं तत्सर्वदानेषु चोत्तमम् ॥१२२ आहारदानमेकं हि दीयते येन देहिना। सर्वाणि तेन दानानि भवन्ति विहितानि वै ॥१२३ नास्ति क्षुधासमो व्याधिर्भेषजं वास्य शान्तये। अन्नमेवेति मन्तव्यं तस्मात्तदेव भेषजम् ॥१२४ विनाहारेबलं नास्ति जायते नो बलं विना। सच्छास्त्राध्ययनं तस्मात्तहानं स्यात्तदात्मकम् ॥१२५ अभयं प्राणसंरक्षा बुभुक्षाप्राणहारिणो । क्षुन्निवारणमन्नं स्यादन्नमेवाभयं ततः ॥१२६ अन्नस्याहारदानस्य तृप्तिभाजां शरीरिणाम् । रत्नभूस्वर्णदानानि कलां नाहन्ति षोडशीम् ॥१२७ सवदृष्टिः पात्रदानेन लभते नाकिनां पदम् । ततो नरेन्द्रतां प्राप्य लभते पदमक्षयम् ॥१२८ संसाराब्धो महाभोमे दुःखकल्लोलसंकुले । तारकं पात्रमुत्कृष्टमनायासेन देहिनाम् ॥१२९ सत्पात्रं तारयत्युच्चैः स्वदातारं भवार्णवे । यानपात्रं समीचीनं तारयत्यम्बुधौ यथा ॥१३० भद्रमिथ्यादृशो जीवा उत्कृष्टपात्रदानतः । उत्पद्य भुजते भोगानुत्कृष्ट भोगभूतले ॥१३१ ते चार्पितप्रदानेन मध्यमाधमपात्रयोः । मध्यमाधमभोगेभ्यो लभन्ते जीवितं महत् ॥१३२ आष्टाह्निकारूप ) पोंमें जो देव-इन्द्रोंके द्वारा आठ दिन तक पूजा की जाती है, वह आष्टाह्निकपूजा है ।। ११८ ॥ अकृत्रिम चैत्यालयों में और तीर्थङ्करोंके पंचकल्याणकोंमें जो देव और इन्द्रोंके द्वारा पूजा की जाती हैं, वह इन्द्रध्वजपूजा कही जाती है ॥ ११९ ।। जो उक्त पाँच प्रकारसे महोत्सव पूर्वक पूजनको करता है, वह पुरुष इस लोकमें मुक्तिरूपी वधूके प्रेमका पात्र होता है ।। १२०॥ आहार, औषधि, शास्त्र और अभयके भेदसे दान चार प्रकारका है। और वह दान तीन प्रकारके पात्रके आश्रयसे तीन प्रकारका होता है ॥ १२१ ॥ एषणाशद्धिपूर्वक जो आहार तीन प्रकारके पात्रोंमें दिया जाता है. वह आहारदान है. यह सर्व दानों में उत्तम दान है।॥ १२२॥ ॥ जो मनुष्य एक आहारदानको देता है वह निश्चयसे सभी दानोंको देता है ॥ १२३ ॥ क्योंकि भूखके समान कोई बडी व्याधि नहीं है और उसकी शान्तिके लिए अन्न ही समर्थ है. इसलिए भखरूपी व्याधिको औषधि अन्न हो मानना चाहिए ॥ १२४ ॥ आहारके बिना शरीरमें बल नहीं होता है, और बलके बिना शास्त्रका अध्ययन संभव नहीं है, इसलिए आहारदान शास्त्रदान स्वरूप ही है॥ १२५ ॥ प्राणोंकी रक्षा करनेको अभयदान कहते हैं। भूख प्राणोंका अपहरण करती है, अन्न उस प्राणहारिणी भूखका निवारण करता है अतः अन्नदान अभयदान ही है ॥ १२६ ।। प्राणियोंको तृप्ति करानेवाले अन्नके आहारदानको सोलहवीं कलाको रत्नदान, भूदान और स्वर्णदान प्राप्त नहीं होते हैं। भावार्थ-रत्नादिका दान आहारदानके सोलहवें भागकी भी समता नहीं करते ह।। १२७॥ सम्यग्दष्ट पूरुष पात्रदानसे देवोके उत्कृष्ट पदको प्राप्त करता है। वहास च्यत होकर नरेन्द्रपदको पाकर अक्षयमोक्ष पदको पाता है ।। १२८ ॥ महाभयंकर दुःखरूपी कल्लोलोंसे व्याप्त इस संसार-सागरमें प्राणियोंको अनायास ही तारनेवाला उत्कृष्ट पात्र ही है ।। १२९ ॥ जैसे उत्तम यानपात्र (जहाज) समुद्र में प्रविष्ट प्राणोको तारता है, उसी प्रकार सत्पात्र भी अपने दातारको संसार-समद्रसे सम्यक प्रकार तारता है॥ १३०॥ भद्र मिथ्यावृष्टि जीव भी दान देनेसे उत्कृष्ट भोगभूमिमें उत्पन्न होकर वहाँके उत्तम भोगोंको भोगते हैं ।। १३१ ।। वे हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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