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________________ श्री कुन्दकुन्दाचार्यविरचित रयणसार-गत श्रावकाचार णमिउण वढ्ढमाणं परमप्पाणं जिणं तिसुद्धेण । वोच्छामि रयणसारं सायारऽणयारधम्मीणं ॥१ पुव्वं जिणेहि भणियं जहट्टियं गणहरेहिं वित्थरियं । पुव्वाइरियक्कमजं तं बोल्लइ सो हु सद्दिट्टी ॥२ मदिसुदणाणबलेण दु सच्छंदं बोल्लइ जिणुद्दिटुं। . जो सो होइ कुट्ठिी ण होइ जिणमग्गलग्गरवो ॥३ सम्मत्तरयणसारं मोक्खमहारक्खमूलमिदि भणियं । तं जाणिज्जउ णिच्छयववहारसरूवदो भेयं ॥४ भय-विसण-मलविवज्जिय संसार-सरीर-भोगणिविष्णो। अट्ठगुणंगसमग्गो दंसणसुद्धो हु पंचगुरुभत्तो ॥५ णियसुद्धप्पणुरत्तो बहिरप्पावत्थवज्जियो णाणी। जिणमुणिधम्म भण्णइ गयदुक्खो होइ सट्ठिी ॥६ मय-मूढमणायदणं संकाइ-वसण-भयमईयारं । जेसि चउदालेदे ण संति ते होंति सद्दिट्ठी ॥७ देव-गुरु-समयभत्ता संसार-सरोर-भोगपरिचत्ता। रयणत्तयसंजुत्ता ते मणुया सिवसुहं प्रत्ता ॥८ दाणं पूया सोलं उववासं बहुविहं पि खवणं पि । सम्मजुदं मोक्खसुहं सम्मोविणा दोहसंसारं ॥९ श्री जिनेन्द्र वर्धमान परमात्माको त्रियोग शुद्धिसे नमस्कार करके मैं सागार और अनगार धर्म पालन करनेवालोंके लिए रत्नसार कहूँगा ॥१॥ यह रत्नसार जैसा पहले जिनेन्द्रोंने कहा है और जिस प्रकारसे उसे गणधरोंने विस्तृत किया है और वह पूर्वाचार्योके क्रमसे प्राप्त हुआ है, उसे जो ज्यों का त्यों कहता है, वह सम्यग्दृष्टि है ॥ २॥ जो जिनेन्द्र-उपदिष्ट उस रत्नसार-रूप तत्त्वको अपने मति और श्रुत ज्ञानके बलसे अपनी इच्छानुसार पूर्व-परम्परासे विपरीत बोलता है, वह जिनमार्गमें संलग्न प्रवचनकार नहीं है, किन्तु मिथ्यादृष्टि है ।। ३॥ यह सम्यक्त्वरूपी रत्नसार मोक्षरूपी महावृक्षका मूल कहा गया है, उसे निश्चय और व्यवहार स्वरूपसे दो भेदवाला जानना चाहिए ।। ४ ॥ जो सात भय, सात व्यसन, और पच्चीस दोषोंसे रहित है, संसार, शरीर और भोगोंसे विरुद्ध है, निःशंकित आदि आठ गुण रूप अंगोंसे सम्पन्न है और पंच परम गुरुओंका भक्त है, वह निश्चयसे शुद्ध सम्यग्दृष्टि है ।। ५ ।। जो ज्ञानी अपनी शुद्ध आत्माके स्वरूप में अनुरूप है, बहिरात्म-अवस्थासे रहित है, जिनेन्द्र प्ररूपित वीतराग मुनिधर्मको मानता है, वह सम्यग्दृष्टि दुःखोंसे विमुक्त होता है ॥ ६ ॥ आठ मद, तीन मूढ़ता, छह अनायतन, शंकादि आठ दोष, सात व्यसन, सात भय और पांच अतोचार ये चवालीस दोष जिनके नहीं होते हैं, वे जीव सम्यग्दृष्टि हैं ।। ७ ।। जो देव, गुरु और समय ( सिद्धान्त ) के. भक्त हैं, संमार, शरीर और भोगोंके त्यागी हैं और रत्नत्रयसे संयुक्त हैं, वे मनुष्य शिव-सुखको प्राप्त होते हैं ।। ८ ।। सम्यग्दर्शनसे मुक्त दान, पूजन, शील, उपवास और अनेक प्रकारके तपश्चरण भी मोक्ष सुखके कारण हैं, और सम्यग्दर्शनके बिना ये ही दीर्घ संसारके कारण हैं ॥ ९ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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