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________________ श्रीदेवसेनविरचित प्राकृत-भावसंग्रह गिहतरुवर वरगेहे भोयणरुक्खा य भोयणे सरसे। कणयमयभायणाणि य भायणरुक्खा पयच्छति ॥२३९ वत्थंगा वरवत्थे कुसुमंगा दिति कुसुममालाओ। दिति सुयंघविलेवण विलेवणंगा महारुक्खा ॥२४० तूरंगा वरतूरे मज्जंगा दिति सरसमज्जाई। आहरणंगा दिति य आहरणे कणयमणिर्जाडए ॥२४१ रयणिदिणं ससिसूरा जह तह दीवंति जोइसारुक्खा । पायव दसप्पयारा चितिययं दिति मणुयाणं ॥२४२ जरसो य वाहिवेअणकासं सासं च जिभणं छिक्का । एए अण्णे बोसा ण हवंति हु भोयभूमीसु॥२४३ सव्वे भोए दिवे भुंजित्ता आउसावसाणम्मि । सम्माविट्ठीमणुया कप्पावासेसु जायंति ॥२४४ जे पुणु मिच्छाविट्ठी वितरभवणे सुजोइसा होति । जम्हा मंदकसाया तम्हा देवेसु जायंति ॥२४५ केई समसरणगया जोइसभवणे सुर्वितरा देवा । गाहऊण सम्मदसण तत्थ चुया हंति वरपरिसा ॥२४६ लहिऊण देससंजम सयलं वा होइ सुरोत्तमो सग्गे । भोत्तूण सुहे रम्मे पुणो वि अवयरइ मणुयत्ते ॥२४७ दिव्य भोगोंको भोगता है ।। २३८ ।। उन दश प्रकारके कल्पवृक्षोंमें जो गृहाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष हैं, वे उत्तम प्रकारके घरोंको देते हैं, जो भोजनाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष हैं, वे सरस भोजनको देते हैं, और जो भाजनाङ्ग जातिके वृक्ष हैं, वे सुवर्णमय भाजनों (पात्रों-बर्तनों) को देते हैं ।। २३९॥ वस्त्राङ्ग जातिके कल्पवृक्ष उत्तम वस्त्रोंको, कुसुमाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष उत्तम पुष्पमालाओंको और विलेपनाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष सुगन्धित विलेपन-उबटन आदिको देते हैं ।। २४० ॥ तूर्याङ्ग जातिके कल्पवृक्ष उत्तम बाजोंको, मद्याङ्ग जातिके कल्पवृक्ष सरस मद्योंको और आभरणाङ्ग जातिके कल्पवृक्ष स्वर्ण-मणि-जड़ित नाना प्रकारके आभूषणोंको देते हैं ।। २४१ ।। ज्योतिरङ्ग जातिके कल्पवृक्ष सूर्य-चन्द्रके समान रात-दिन प्रकाश करते-रहते हैं। इस प्रकार ये दश प्रकारके कल्पवृक्ष भोगभूमिमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्योंको चित्त-चिन्तित भोगोंको देते हैं ।। २४२ ॥ भोगभूमिमें वृद्धावस्था, व्याधि, वेदना, कास ( खांसी ), श्वास (दमा), जंभाई, छींक ये और इसी प्रकारके अन्य कोई दोष नहीं होते हैं ॥ २४३ ॥ भोगभूमिके सम्यग्दृष्टि मनुष्य जीवन-भर सभी दिव्य भोगोंको भोगकर और आयुके अन्तमें मरकर कल्पवासी देवोंमें उत्पन्न होते हैं ॥ २४४ ॥ किन्तु जो मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं, ये भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें उत्पन्न होते हैं। यतः ये भोगभूमिके मनुष्य मन्दकषायवाले होते हैं अतः वे मरकर देवोंमें उत्पन्न होते हैं ॥ २४५ ॥ इन भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमेंसे कितने ही देव तीर्थंकरोंके समवशरण में जाकर और सम्यग्दर्शनको ग्रहण कर वहाँसे च्युत होकर इस मनुष्यक्षेत्रके श्रेष्ठ पुरुषोंमें उत्पन्न होते हैं ।। २४६ ॥ पुनः देशसंयम अथवा सकलसंयमको ग्रहण कर स्वर्गमें उत्तम देव होते हैं और वहां पर दिव्य रमणीय उत्तम भोगोंको भोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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