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________________ s श्रावकाचार-संग्रह जं उप्पज्जइ दव्वं तं कायव्वं च बुद्धिवंतेणं । छहभायगयं सव्वं पढमो भावो हु धम्मस्स ॥२२९ बीओ भावो गेहे दावो कुटुंबपोसणत्येण । तइओ भावो भोए चउत्थओ सयणवग्गमि ॥ २३० संसा जे वे भावा ठायव्वा होंति ते वि पुरिसेण । पुज्जामहिमाकज्जे अहवा कालावकालस्स ॥२३१ अहवाणियं वित्तं कस्स वि मा देहि होहि लोहिल्लो । सो को वि कुण उवाऊ जह तं दव्वं समं जाइ ॥२३२ तं बव्वं जाइ समं जं खीणं पुज्जम हिमदाणेहि । जं पुण घराणिहत्तं णट्ठ तं जाणि नियमेण ॥२३३ स ठाणाओ भुल्लइ अहवा मूसेहि णिज्जए तं पि । अह भाओ अह पुत्तो चोरो तं लेइ अह राओ ॥२३४ अहवा तरुणी महिला जायह अण्णेण जारपुरिसेण । सह तं गिव्हिय दव्वं अण्णं देसंतरं दुट्ठा ॥ २३५ इय जाणिऊण णूर्ण देह सुपत्तेसु चउविहं दाणं । जह कयपावेण सया मुच्चह लिप्पह सुपुण्णेण ॥ २३६ पुष्णेण कुलं विउलं कित्ती पुण्णेण भमइ तइलोए । पुण्णेण रूवमतुलं सोहग्गं जोवणं तेयं ॥ २३७ पुण्णव लेणुववज्जइ कहमवि पुरिसो य भोयभूमीसु । भुंजेइ तत्थ भोए दहकप्पतरुन्भवे दिव्वे ॥ २३८ अपने चित्तमें लोभको भली भाँति से उपशान्त कर अपने वित्तके अनुसार सुपात्रोंको दान देते रहना चाहिए ॥ २२८ ॥ बुद्धिमान मनुष्यों का कर्तव्य है कि वे जितना धन उत्पन्न करें, उसके छह भाग करें । उनमेंसे प्रथम भाग धर्मके लिए व्यय करें। दूसरा भाग घरमें कुटुम्बके भरण-पोषण के लिए देना चाहिए। तीसरा भाग अपने भोगोंके लिए और चौथा भाग स्व-जनवर्गके उपयोगमें लगावें । ॥ २२९-२३० ॥ शेष जो दो भाग बचे, उन्हें पूजा - प्रभावना आदिके कार्य में लगाना चाहिए । अथवा आपत्ति - कालके लिए रख छोड़ना चाहिए ।। २३१ ।। अथवा अपना बढ़ा हुआ धन किसीको भी नहीं देना चाहिए । किन्तु अतिलोभी बन कर कोई ऐसा उपाय करना चाहिए कि वह सब द्रव्य अपने साथ ही परभवमें जावे ।। २३२ ॥ परंभवमें वही द्रव्य साथ जाता है जो कि पूजामहिमामें और दानके द्वारा व्यय किया जाता है । किन्तु जो धन भूमिमें गाड़ करके रखा जाता है, वह तो नियमसे नष्ट हुआ ही जानना चाहिए || २३३ || भूमि में गाड़ कर रखा हुआ धन या तो रखनेवाला उस स्थानको भूल जाता है, अथवा चूहे उसे अन्य स्थानको ले जाते हैं, अथवा भाई, पुत्र या चोर चुरा लेते हैं, अथवा राजा ही छीन लेता है || २३४ ॥ अथवा अपनी तरुणी दुष्ट स्त्री ही उस सब धनको लेकर अन्य जार पुरुषके साथ देशान्तरको चली जाती है || २३५ || ऐसा निश्चयसे जानकर सुपात्रोंमें चारों प्रकारका दान देते रहना चाहिए, जिससे कि किये गये पापोंसे छुटकारा हो और उत्तम पुण्यका उपार्जन हो || २३६ ॥ उत्तम कुल प्राप्त होता है, पुण्यके द्वारा ही कीर्ति त्रिलोकमें फैलती है, सौभाग्य, यौवन और तेज प्राप्त होता है ।। २३७ ॥ पुण्यके बलसे यदि भोगभूमियों में उत्पन्न हो जाता है तो वहाँ पर दश प्रकारके कल्पवृक्षों के पुण्यके द्वारा ही और पुण्य से अनुपम रूप, वह पुरुष किसी प्रकारसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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