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________________ श्रीदेवसेनविरचित प्राकृत-भावसंग्रह ४६१ जेहि ण दिण्णं दाणं ण चावि पुज्जा किया जिणिदस्स। ते होणवीणदुग्गय भिक्खं ण लहंति जायंता ।।२२० परपेसणाई णिच्चं करंति भत्तीए तह य णियपेढें । पूरति ण णिययघरे परवसगासेण जीवंति ॥२२१ खंधेण वहति गरं गासत्थं दोहपंथसमसंता । तं चेव विष्णवंता मुहकयकरविणयसंजुता ॥२२२ पहु तुम्ह समं जायं कोमलभंगाई सुठुसुहियाई। इय मुहपियाइंकोऊं मलंति पाया सहत्थेहि ।।२२३ । रक्खंति गोगवाई छलयखरतुरयछेत्तखलिहाणं । तूणंति कप्पडाई घडंति पिडउल्लयाई च ॥२२४ धावंति सत्थहत्था उन्हं ण गणंति तह य सीयाई। तुरयमुहफेणसित्ता रयलित्ता गलियपासया ॥२२५ पिच्छिय परमहिलाओ घणथणमयणयणचंदवयणाई। ताडेह णियं सोसं सूरह हिययम्मि दोणमुहो ॥२२६ परसंपया णिएऊण भणइ हा! कि मया दिण्णाई । बाणाई पवरपत्ते उत्तमभत्तीय जुत्तेण ॥२२७ । एवं पाऊण फुडं लोहो उवसामिऊण णियचित्ते। णियवित्ताणुस्सारं दिज्जह वाणं सुपत्तेसु ॥२२८ लगे तो और भी विशेष रूपसे अधिक दानको देने लगे॥ २१९ ॥ जिन पुरुषोंने अपने जीवन में दान को नहीं दिया, और न जिनेन्द्र देवकी पूजा ही की, वे परभवमें दीन, धन-हीन और खोटी अवस्थाको प्राप्त होकर याचना करने पर भी भिक्षाको नहीं पाते हैं ॥ २२० ।। धन पाकर भी जो इस भवमें दानको नहीं देते हैं, वे जीव परभवमें भक्तिपूर्वक दूसरोंका अन्न नित्य पीसकर अपना पेट भरते हैं। वे कभी अपने घरमें भरपेट भोजन नहीं पाते, किन्तु सदा ही पराधीन हो परके ग्रास खाकर जीते हैं ।। २२१ ॥ दान नहीं देनेवाले पुरुष परभवमें अन्न-पास पानेके लिए दूसरे मनुष्योंको अपने कन्धों पर रखकर ( पालकी-डोलो आदिमें बिठाकर ) दूर-दूर तक ले जाते हैं और दोन मुख कर हाथ जोड़कर बड़ी विनयसे युक्त होकर उनसे विनती करते हैं ।। २२२ ॥ हे प्रभो, तुम्हारे ये अंग बहुत कोमल और सुन्दर हैं, तुम्हारे हाय, मुख बहुत प्रिय हैं, ऐसे चाटुकारी प्रिय वचन बोलकर अपने हाथोंसे उनके पैरोंको दाबते-फिरते हैं॥ २२३ ।। दान नहीं देने वाले पुरुष प गाय, भैंस, बकरी, गधा, घोड़ा, खेत, खलिहान आदिको रखवाली करते है, कपड़ोंको बुनते हैं और मिट्टीके घड़े, लकड़ीके बर्तन आदि बनाते हुए जीवन-यापन करते हैं ।। २२४ ॥ दान नहीं देनेवाले पुरुष परभवमें राजा-महाराजाओंके आगे शस्त्र हायमें लेकर दौड़ते हैं, उस समय वे न सर्दीको गिनते हैं और न गर्मीको ही। उस समय उनका मुख रथमें जुते और भागते हुए घोड़ोंके समान फेनसे व्याप्त हो जाता है और हाथ-पैर एवं सारा शरीर पसीने और धूलिसे लिप्त हो जाता है ।। २२५ ॥ दान नहीं देनेवाले पुरुष परभवमें सघन स्तनवाली, मृगनयनी चन्द्रमुखी स्त्रियोंको देखकर दोन मुख हो शिरको धुनते हैं, और मनमें झूरते रहते हैं। तथा दूसरोंकी सम्पत्तिको देखदेखकर हा-हा कार करते हुए कहते हैं-हाय, मैंने पूर्व भवमें उत्तम भक्तिके साथ उत्तम पात्रोंको दान क्यों नहीं दिया ? जिससे आज ऐसी दुर्दशा भोगनी पड़ रही है ॥ २२६-२२७ ।। ऐसा जानकर रभवमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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