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________________ ૪ श्रावकाचार-संग्रह कस्स थिरा इह लच्छी कस्स थिरं जुठवणं घणं जीवं । इय मुणिऊण सुपुरिसा विति सुपत्तेसु दाणाई ॥२११ दुक्खेण लहइ वित्तं वित्तं रुद्धे वि दुल्लहं चित्तं । लद्धे चित्ते वित्ते सुदुल्लाहो पत्तलंभो य ॥२१२ चित्तं वित्तं पत्तं तिष्णि वि पावेइ कह वि जइ पुरिसो । तो लहइ अणुकूलं सयणं पुत्तं कलत्तं च ॥ २१३ पडिकूलमाइ काऊं विग्धं कुव्वंति धम्मदाणस्स । उबएसंति दुबुद्धि दुग्गइगमकारया असहा ॥२१४ सोह सयो भors विग्धं जो कुणइ धम्मदाणस्स । दाऊण पावबुद्धी पाडह दुक्खायरे णरए ॥ २१५ सो सयणो सो बंधू सो मित्तो जो सहिज्जओ धम्मे । जो धम्मविग्धयारी सो सत्तू णत्थि संदेहो ॥ २१६ ते घण्णा लोयतए तेहि णिरुद्वाई कुमइगमणाई | वित्तं पत्तं चित्तं पाविवि जहिं विष्णदाणाइं ॥ २१७ मुणिभोयणेण दव्वं अस्स गयं जुब्वणं च तवयरणे । सणासेण य जीवं जस्स गयं किं गयं तस्स ॥२१८ वह जह वड्डइ लच्छो तह तह बाणाई वेह पत्तेसु । अहवा हीयइ जह जह देह विसेसेण तह तह य ॥ २१९ कृपण ( कंजूस ) के द्वारा संचित धन भी उसका कुछ भी उपकारक नहीं है, किन्तु दूसरे लोग ही -उसका उपभोग करते हैं || २१० || इस संसारमें किसकी लक्ष्मी स्थिर रही है, किसका यौवन स्थिर रहा है, और किसका धन एवं जीवन स्थिर रहा है ? यह समझ कर सत्पुरुष सदा ही सुपात्रोंमें दान देते हैं । २११ ॥ इस संसार में धन बड़े दुःखसे प्राप्त होता है, धनके प्राप्त हो जाने पर भी दान देनेका मनमें भाव उत्पन्न होना दुर्लभ है। यदि धन और मन दोनोंका योग भी मिल जाय, तो सुपात्रका लाभ बहुत दुर्लभ है ।। २१२ ॥ यदि वित्त, चित्त और पात्र इन तीनोंका समायोग भी मिल जाय तो अपने अनुकूल स्वजन, पुत्र और स्त्री नहीं मिलते हैं || २१३ || जब ये स्त्रो, पुत्र, कुटुम्बी जन आदि प्रतिकूल होते हैं, तब धर्म -कार्य में दान देनेके लिए विघ्न करते हैं और दुर्गतिमें गमन करानेवाली अशुभ दुर्बुद्धिका उपदेश देते हैं ।। २१४ ॥ जो लोग धर्म कार्य के लिए विघ्न करते हैं, उन्हें स्वजन कैसे कहा जा सकता है। वे स्वजन तो पापरूप बुद्धिका उपदेश देकर दुःखोंके सागर रूप नरक में गिराते हैं ॥ २१५ ॥ वही स्वजन है, वही बन्धु है और वही मित्र है, जो कि धर्म कार्य में सहायक होता है । किन्तु जो धर्म कार्य में विघ्न करता है, वह तो शत्रु है इसमें कोई सन्देह नहीं है | २१६ ॥ वे पुरुष धन्य हैं और उन्होंने ही कुगतिके गमनको रोका है, जिन्होंने कि वित्त, चित्त और पात्रको पा करके दानको दिया है ।। २१७ ।। मुनियोंको भोजन कराने से जिसका द्रव्य व्यतीत हुआ है, तपश्चरण करने में जिसका यौवन बीता है और संन्यास मरणके साथ जिसका जीवन गया है, उसका क्या गया है ? अर्थात् उसका कुछ भी नहीं गया || २१८ || इसलिए श्रावकोंको चाहिए कि जैसे-जैसे धन-लक्ष्मी बढ़ती जावे, वैसे-वैसे ही पात्रोंमें अधिक दानको देता जावे अथवा यदि पापके उदयसे लक्ष्मी ज्यों-ज्यों घटने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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