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________________ श्रावकाचार-संग्रह तत्थ वि सुहाई भुत्तं दिक्खा गहिऊण भविय णिगंथो । सुक्कझाणं पाविय कम्मं हणिऊण सिज्मेइ ॥ २४८ सिद्धं सरूवरूवं कम्मरहियं च होई झाणेण । सिद्धावासी य णरो ण हवइ संसारिओ जीवा ॥२४९ iti yari एयं कहियं मया समासेण । एतो उड्ढं वोच्छं पमत्तविरयं तु छट्टमयं ॥ २५० इति देशविरतगुणस्थानं पंचमम् । ४६४ कर फिर भी उत्तम मनुष्यों में भोगकर, पीछे दीक्षा ग्रहण कर, करके सिद्ध होते हैं ॥ २४८ ॥ ध्यानके द्वारा जीव कर्म -रहित होकर अपने शुद्ध सिद्ध स्वरूपको प्राप्त कर लेता है । सिद्धलोकका वासी जीव फिर कभी संसारी नहीं होता है, अर्थात् अनन्तकाल तक उसी सिद्धलोकमें रहता हुआ वह आत्मीय अनन्त सुखको भोगता रहता है ।। २४९ ॥ अवतरित होते हैं ॥ २४७ ॥ उस मनुष्य भवमें उत्तम सुखोंको निर्ग्रन्थ साधु होकर शुक्लध्यानको पाकर और कर्मोका क्षय 1 इस प्रकार मैंने संक्षेपसे पाँचवें गुणस्थानका स्वरूप कहा । ( अब इससे आगे ग्रन्थकारने छठें प्रमत्तगुणस्थानका स्वरूप कहा है । ) ।। २५० ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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