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श्रीदेवसेनविरचित प्रकृत भावसंग्रह एवं विहिणा जुत्तं देयं दाणं तिसुद्धभत्तीए । बज्जिब कुच्छियपतं तह य बपणिस्तारं॥१८०
जं रयणत्तयरहियं मिच्छामबकहियषम्मअणुलग्ग। जइ वि हु तवइ सुधीरं तहा वि तं कुच्छियं पसं १८१ जस्स ण तवो ण चरणं ण चावि जस्सवि वरगुणो कोई।
तं जाणेह अपत्तं बफलं दाणं कथं तस्स ।।१८२. । ऊसरखित्ते बीयं सुक्खे रुक्खे य णीरहिसेओ। नह तह वाणमवत्ते दि खु णिरत्ययं होई ॥१८३
कुच्छियपत्ते किंचि वि फलह कुदेवेसु कुणरतिरिए।
कुच्छियभोयषरासु य लवणंवुहिकालउवहीसु॥१८४' . लवणे अडयालोसा कालसमुहे य तित्तिया चेव । अंतरदीवा भणिया कुभोयभूमीय विभखाया ॥१८५ उप्पज्जंति मणुस्सा कुपत्तदाणेण तत्थ भूमोसु । जुवलेण गेहरहिया णग्गा तरुमूलि णिवसंति॥१५६
पल्लोवमाउस्सा बस्थाहरणेहि वज्जिया णिच्छ । तरुपल्लवपुप्फरसं फलाण रसं चेव भक्खंति ॥१८७ दीवे कहि पि मणुबा सक्करगुडखंडसणिहा भूमी।
भक्खंति पट्टिजणया अइसरसा पुवकम्मेण ॥१८८ केई गयसोहमुहा केई हरिमहिसकविकोलमुहा । केई आदरिसमुहा केई पुण एयपाया ये ॥१८९ रखना और ९. एषणा-आहारकी शुद्धि रखना, इन नौ प्रकारके पुण्य कार्योंके द्वारा बाहार देना चाहिए ।। १७८-१७९ ।। इस प्रकारकी विधिपूर्वक त्रियोगकी शुद्ध भक्तिसे सत्पात्रको दान देना चाहिए । किन्तु कुत्सित पात्र और निःसार अपात्रका परित्याग करना चाहिए ॥ १८०॥
जो रत्नत्रयसे रहित है, मिथ्यामतमें कहे हुए धर्ममें अनुरक्त है, वह पुरुष यदि घोर तपश्चरण भी करता है, तो भी वह कुपात्र ही जानना चाहिए ।। १८१ ।। जिसके न तप है, न चारित्र है, ओर न कोई उत्तम गुण ही है, उसे अपात्र जानना चाहिए। उसे दिया गया दान निष्फल ही जाता है ।। १८२ ॥ जैसे ऊसर भूमिमें बोया गया बीज और सूखे वृक्षमें सींचा गया जल व्यर्थ जाता है, उसी प्रकार अपात्रको दिया गया दान सर्वथा व्यर्थ जाता है ।। १८३ ॥ कुत्सित पात्रमें दिया गया दान कुत्सितरूप ही कुछ फलको देता है। कुपात्रदानके फलसे जीव. नीच जातिके देवोंमें, कुमनुष्योंमें और खोटे तिर्यचोंमें उत्पन्न होता है, तथा लवणसमुद्र और कालोदधि समुद्र-गत कुभोगभूमियोंमें उत्पन्न होता है ।। १८४ || लवणसमुद्र में अड़तालीस अन्तर्वीप हैं और कालोदधिमें भी अड़तालीस अन्तर्वीप हैं। इन छियानबे अन्तर्वीपोंमें वे प्रसिद्ध कुभोगभूमियाँ हैं ॥ १८५ ।। कुपात्रोंको दान देनेके फलसे मनुष्य उन कुभोगभूमियोंमें उत्पन्न होते हैं। वे सब स्त्री-पुरुष युगल ही एक साथ उत्पन्न होते हैं, वे घर-रहित होते हैं, नग्न ही वृक्षोंके मूल भागमें निवास करते हैं ।। १८६ ॥ इस कुभोगभूमिके मनुष्योंकी आयु एक पल्योपमकी होती है, ये सदा वस्त्र और आभूषणोंसे रहित होते हैं, वृक्षोंके पत्ते, फूलोंका रस और फल तथा उसके रसको खाते-पोते रहते हैं ।। १८७ ।। किसी-किसी द्वीपको भूमि गुड़, खाँड़ और शक्करके समान मीठी, पुष्टि कारक ओर अति सरस होती है, उसे वहांपर उत्पन्न होने वाले जीव पूर्व कर्मके प्रभावसे खाते हैं ॥ १८८॥ उन अन्तर्वीपोंमें रहनेवाले कितने ही. मनुष्योंके मुख हाथीके समान, किवनोंके सिंहके समान, कितनोंके व्याघ्र-समान, कितनोंके भैंसा-समान, कितनोंके बानर-समान, कितनोंके सूकर-समान , और कितनों के दर्पण-समान होते हैं। कितने ही मनुष्य एक पैर वाले होते हैं, कितने ही मनुष्योंके
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