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________________ ४५६ श्रावकाचार-संग्रह ता बेहो ता पाणा ता रुवं ताम णाणविण्णाणं । जामाहारो पविसइ देहे जीवाण सुक्खयरो ॥१७१ आहारसण देहो देहेण तवो तवेण रयसडणं । रयणासेण य णाणं णाणे मुक्खो जिणो भणई ॥१७२ चउविहदाणं उत्तं जंतं सयलमवि होइ इह दिण्णं । सविसेसं दिण्णेण य इक्केणाहारदाणेण ॥१७३ भुक्खाकयमरणभयं णासइ जीवाण तेण तं अभयं । सो एव हणइ वाही उसहं तेण आहारो॥१७४ । आयाराईसत्थं आहारवलेण पढइ णिस्सेसं । तम्हा तं सुयदाणं दिण्णं आहारदाणेण ॥१७५ हयगयगोदाणा धरणोरयकणयजाणदाणाई। तिति ण कुणंति सया जह तित्ति कुणइ आहारो॥१७६ जह इणाणं वइरं सेलेसु य उत्तमो जहा मेरू । तह दाणाणं पवरो आहारो होइ णायव्वो ॥१७७ सो दायव्वो पत्ते विहाणजुत्तेण सा विही एसा। पडिगहमुच्चट्ठाणं पादोदयअंचणं च पणमं च ॥१७८ मणवयणकायसुद्धी एसणसुद्धी य परम कायव्वा । होइ फुडं आयरणं णवम्विहं पुण्णकम्मेण ॥१७९ है। इसलिए जिसने आहार दान दिया, उसने शरीरको ही दिया, ऐसा समझना चाहिए ॥ १७० ।। इस संसारमें जब तक जीवोंको सुख देनेवाला आहार इस शरीरको प्राप्त होता रहता है, तब तक ही यह शरीर रहता है, तब तक ही प्राण रहते हैं, तब तक ही रूप रहता है, तब तक ही ज्ञान रहता है और तब तक ही विज्ञान रहता है। यदि शरीरको आहार नहीं मिले तो ये सब नष्ट हो जाते हैं ।। १७१ ॥ आहारके करनेसे शरीरकी स्थिति रहती है, शरीरकी स्थिति रहनेसे तपश्चरण होता है, तपश्चरणसे कर्मरजका पतन (विनाश) होता है, कर्म-रज-विनाशसे केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है और केवलज्ञानकी प्राप्तिसे मोक्ष प्राप्त होता है, ऐसा जिनदेवने कहा है ॥ १७२ ॥ जो पुरुष विशेष रीतिसे एक आहारदानको ही देता है, उसने चारों ही दान दिये, ऐसा समझना चाहिए ॥ १७३ ॥ देखो-भूख की पीड़ासे मरनेका भय रहता है, आहारदानसे मरणका भय नष्ट हो जाता है, इसलिए जो आहारदान करता है, उसने अभयदान किया। तथा भूख सबसे प्रबल व्याधि है, और आहारदानसे वह विनष्ट होती है, इसलिए आहारदानसे औषधिदान भी स्पष्ट रीतिसे किया गया, ऐसा समझना चाहिए ॥ १७४ ॥ आहारके बलसे ही मुनि आचार आदि समस्त शास्त्र पढ़ता है, इसलिए आहारदानसे श्रुत (शास्त्र) दान दिया गया । इस प्रकार एक आहारदानसे चारों ही दानों का फल मिल जाता है ।। १७५ ॥ घोड़ा, हाथी, और गायोंका दान, पृथ्वी, रत्न. सुवर्ण, वाहन आदि जितने भी दान हैं, वे सब सदा वैसी तृप्ति नहीं करते हैं, जैसी तृप्ति सदा आहारं करता है ।। १७६ ॥ जिस प्रकार समस्त रत्नोंमें वज्र (हीरा) सर्वोत्तम रत्न है, और समस्त पर्वतोंमें मेरुपर्वत श्रेष्ठ है, उसी प्रकार सर्व दानोंमें आहारदान प्रकृष्ट है, ऐसा जानना चाहिए ॥ १७७ ॥ । अब आहारदानकी विधिको कहते हैं-वह आहारदान पात्रको उत्तम विधिसे ही देना चाहिए । उसको विधि यह है-१. प्रतिग्रह-पात्रको आता हुआ देखकर उन्हें हे स्वामिन्, तिष्ठ तिष्ठकर स्वीकारना, २. उच्चस्थान-घरके भीतर ले जाकर ऊंचे स्थान पर बैठाना, ३. पादोदक-उनके प्रासुक जलसे चरण धोना, ४. अर्चन-अक्षतादि द्रव्यसे पूजन करना, ५. प्रणामनमस्कार करना, ६ पुनः मनकी शुद्धि प्रकट करना, ७. वचनकी शुद्धि रखना, ८. कायकी शुद्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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