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________________ श्रीदेवसेनविरचित प्राकृत-भावसंग्रह ४१५ जह णावा णिच्छिद्दा गुणमइया विविहरयणपरिपुण्णा। तारइ पारावारे बहुजलयरसंकडे भीमे ॥१६० तह संसारसमुद्दे जाइजरामरणजलयराइण्णे । दुक्खसहस्सावत्ते तारेइ गुणाहिये पत्तं ॥ १६१ कुच्छिगयं जस्सणं जीरइ तवझाणबंभचरिएहिं । सो पत्तो णित्थारइ अप्पाणं चेव दायारं ॥१६२ एरिसपत्तम्मि वरे दिज्जइ आहारदाणमणवज्ज । पासुयसुद्धं अमलं जोग्गं मणदेहसुक्खयरं ॥१६३ कालस्स य अणुरूवं रोयारोयत्तणं च णाऊणं । दायव्वं जहजोग्गं आहारं गेहवंतेण ॥१६४ पत्तस्सेस सहावो जं दिण्णं दायगेण भत्तीए । तं करपत्ते सोहिय गहियवं विगयराए ॥१६५ दायारेण पुणो वि य अप्पाणो सुक्खमिच्छमाणेण । देयं उत्तमदाणं विहिणा वरणीयसत्तीए ॥१६६ जो पुण हुंतइ घणकणई मुहिं कुभोयणु देइ। जम्मि जम्मि वालिद्दडउ पुट्टि ण तहो छंडेइ ॥१६८ । देहो पाणा हवं विज्जा धम्मं तवो सुहं मोक्खं । सव्वं दिव्वं णियमा हवेइ आहारदाणेणं ॥१६८ भुक्खसमा ण हु वाही अण्णसमाणं च ओसहं पत्थि। तम्हा आहारदाणे आरोयत्तं हवे दिण्णं ।। १६९ आहारमओ देहो आहारेण विणा पडेइ णियमेण । तम्हा जेणाहारो दिण्णो देहो हवे तेण ॥१७० वान् है, वह तपोमय पात्र कहा गया है ।। १५९ ॥ जिस प्रकार छिद्र-रहित, गुण-युक्त और विविध रत्नोंसे परिपूर्ण नाव अनेक जलचर जीवोंसे व्याप्त भयंकर समुद्रसे पार उतार देती है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि अनेक गुणोंसे युक्त पात्र इस जीवको जन्म जग मरणरूप जलचर जीवोंसे व्याप्त और दुःखरूप सहस्रों भंवरोंवाले इस संसार-सागरसे पार उतार देता है ॥१६०-१६१।। (इस प्रकार पात्रका स्वरूप कहा ।) अब दानमें देनेके योग्य द्रव्यका वर्णन करते हैं-जिस पुरुषका जो अन्न पेटमें पहुंचने पर तप, ध्यान और ब्रह्मचर्य के द्वारा सुखपूर्वक जीर्ण हो जाय, अर्थात् पच जाय, वह अन्न पात्रको भी संसारसे पार उतारता है और दान देनेवाले दाताको भी पार उतारता है ।। १६२ ।। इस प्रकारके उत्तम पात्रको जो निर्दोष, प्रासुक, शुद्ध, निर्मल, योग्य, मन और देहको सुखकारक आहार दिया जाता है, वही श्रेष्ठ देय द्रव्य गिना जाता है ॥ १६३ ॥ इस प्रकार सगपके अनुरूप रोग और नीरोग अवस्थाको जान करके गहस्थको यथायोग्य आहार देना चाहिए ।। १६४ ॥ पात्रका यह स्वभाव होना चाहिए कि दाताने जो भक्तिपूर्वक दिया है, उसे राग-द्वेषसे रहित होकर और करपात्रमें शोधकर ग्रहण कर लेना चाहिए ।। १६५ ॥ दाताको चाहिए कि वह अपने आत्माके सुखकी इच्छा करता हआ शक्तिके अनुसार विधिपूर्वक उत्तम दान देवे ।। १६६ ॥ किन्तु जो पुरुष धनधान्यादिके होते हुए भी मुनियोंको खोटा भोजन देता है, उसकी पीठको दरिद्रता जन्म-जन्मान्तरों तक भी नहीं छोड़ती है, अर्थात् वह अनेक जन्मोंतक दरिद्री बना रहता है ।। १६७ ।। शरीर, प्राण, रूप, विद्या, धर्म, तप, सुख और मोक्ष, ये सब आहारके ऊपर निर्भर हैं। इसलिए जो मुनियोंको आहार दान देता है, उसके द्वारा नियमसे सभी दान दिये गये हैं, ऐसा समझना चाहिए।। १६८ ॥ इस संसारमें भूखके समान अन्य कोई व्याधि नहीं है और अन्नके समान और कोई औषधि नहीं है । इसलिए आहारदानके देनेपर आरोग्यदान भी दिया गया, ऐसा समझना चाहिए ॥१६९।। यह देह आहारमय है, आहारके बिना यह नियमसे पड़ जाता है अर्थात् मृत्युको प्राप्त हो जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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