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________________ श्रीविकाचार-संग्रह . तिविहं भणति पत्तं मज्झिम तह उत्तमं जहणणं च । उत्तमत्तं साहू मज्झिमपत्तं च सावया भणिया ॥१४८ अविरइसम्मादिट्ठी जणपत्तं तु अक्खियं समये । गाउं पत्तविसेसं दिज्जइ दाणाई भत्तीए ॥१४९ मिच्छादिट्टी पुरिसो दाणं जो देइ उत्तमे पत्ते । सो पावइ वरभोए फुडु उत्तमभोयभूमीसु ॥ १५० मज्झिमपत्ते मज्झिमभोयभूमीसु पावए भोए । पावइ जहण्णभोए जहण्णपत्तस्स दाणेण ॥ १५१ उत्तमछित्ते वीयं फलइ जहा लक्खकोडिगुण्णेहि । दाणं उत्तमपत्ते फलइ तहा किमिच्छभणिएण ।।१५२ सम्मादिट्ठी पुरिसो उत्तमपुरिसस्स दिष्णदाणेण । उववज्जइ दिवलोए हवइ स महढिओ देओ ॥१५३ ४५४ जहणीरं उच्छुगयं कालं परिणवइ अमयरूवेण । तह दाणं वरपत्ते फलेइ भोएहिं विविहेहि ॥ १५४ उत्तमरयणं खु जहा उत्तमपुरुसासियं च बहुमुल्लं । तह उत्तमपत्तगयं दाणं णिउणेहि णायव्वं ॥ १५५ कि किंचि वि वेयमयं किचि वि पत्तं तवोमयं परमं । तं पत्तं संसारे तारणयं होइ नियमेण ॥१५६ - उत्तम, ओ किल सिद्धंतो तस्सट्ठा णवपयत्थछदव्वं । गुणमग्गणठाणा वि य जीवद्वाणाणि सव्वाणि ॥१५७ परमप्पयस्स रूवं जीवकम्माण उहयसम्भावं । जो जाणइ सविसेसं वेयमयं होइ तं पत्तं ॥ १५८ बहिरब्भंतरतवसा कालो परिखवइ जिणोवएसेण । दिढबंभचेर णाणी पत्तं तु तवोमयं भणियं ॥ १५९ चाहिए || १४७ ।। पात्र तीन प्रकारके कहे गये हैं-उ मध्यम और जघन्य । उत्तम पात्र निर्ग्रन्थ साधु हैं, और मध्यम पात्र श्रावक कहे गये हैं ॥ १४८ ॥ अविरत सम्यग्दृष्टि जीवको जिनागम में जघन्य पात्र कहा गया है। इस प्रकार पात्रोंके भेदोंको जानकर भक्ति के साथ उन्हें दान देना चाहिए ।। १४९ ।। जो मिथ्यादृष्टि पुरुष भी उत्तम पात्रमें दान देता है वह उत्तम भोगभूमिमें उत्तम भोगोंका प्राप्त होता है ॥ १५० ॥ जो मध्यम पात्रको दान देता है, वह मध्यम भोगभूमिमें भोगों को प्राप्त करता है और जघन्य पात्रको दान देनेसे जघन्य भोगभूमिके भोगोंको प्राप्त करता है ।। १५१ ।। जिस प्रकार उत्तम क्षेत्र में बोया गया बीज लाखों करोड़ों गुणा फलता है, उसी प्रकार उत्तम पात्र में दिया गया दान इच्छानुसार फलको देता है ।। १५२ ॥ सम्यग्दृष्टि पुरुष उत्तम पात्र को दान देने से देवलोक में महान् ऋद्धिवाला देव उत्पन्न होता है ।। १५३ ।। जिस प्रकार ईखमें दिया गया पानी समय आने पर अमृतरूप मिष्टरससे परिणत होता है, उसी प्रकार उत्तम पात्रमें दिया गया दान समय आने पर नाना प्रकारके उत्तम भोगोंको फलता है ।। १५४ ॥ जैसे कोई उत्तम रत्न उत्तम पुरुष के आश्रयसे बहुमूल्य माना जाता है, उसी प्रकार उत्तम पात्रको दिया गया दान निपुण जनोंको उत्तम जानना चाहिए ।। १५५ ।। । अन्य प्रकारसे पात्रोंके दो भेद और भी होते हैं - एक तो कुछ कम या अधिक ज्ञान वाला वेदमय पात्र और दूसरा थोड़ा-बहुत तपश्चरण करनेवाला तपोमय पात्र । ये दोनों ही प्रकारके पात्र नियमसे संसार-तारक होते हैं ।। १५६ ॥ वेद नाम सिद्धान्त शास्त्रका है । जो पुरुष सिद्धान्त शास्त्रको जानता है, उसके अर्थको जानता है, नो पदार्थ और छह द्रव्योंको जानता है, सभी गुणस्थानों, मार्गणास्थानों और जीवसमासों को जानता है, परमात्मा के स्वरूपको जानता है, जीवका स्वभाव, कर्मों का स्वभाव और कर्म संयुक्त जीवोंका स्वभाव विशेषरूपसे जानता है, वह वेदमय पात्र कहा जाता है ।। १५७-१५८ ।। जो जिनदेव के द्वारा उपदेश दिये गये बाह्य और आभ्यन्तर तपश्चरण के द्वारा अपना समय व्यतीत करता है और ब्रह्मचर्यको दृढ़ रूपसे पालन करता है, ज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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