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________________ ४५८ . श्रावकाचार-संग्रह सससुक्कलिकण्णा वि य कण्णप्पावरणदीहकण्णा य । लंगूलधरा अवरे अवरे मणुया अभासा य ॥१९० एए णरा पसिद्धा तिरिया वि हवंति कुभोयभूमीसु । मणुसुत्तरबाहिरेसु अ असंखदीवेसु ते होंति ॥१९१ सव्वे मंदकसाया सव्वे णिस्सेसवाहिपरिहोणा । मरिऊण वितरा वि हु जोइसुभवणेसु जायंति ॥१९२ तत्य चुया पुण संता तिरियणरा पुण हवंति ते सव्वे । काऊण तत्थ पावं पुणो वि णिरयावहा होति ॥१९३ चंडालभिल्लछिपियडोंबयकल्लाल एवमाईणि । दोसंति रिद्धिपत्ता कुच्छियपत्तस्स दाणेण ॥१९४ केई पुण गयतुरया गेहे रायाण उण्णई पत्ता । दिस्संति मच्चलोए कुच्छियपत्तस्स दाणेण ॥१९५ केई पुण दिवलोए उववण्णा वाहणत्तणण ते मणुया। सोयंति जाइदुक्खं पिच्छिय रिद्धी सुदेवाणं ॥१९६ णाऊण तस्स दोसं सम्माणह मा कया वि सिविणम्मि। परिहरह सया दूरं वुहियाण वि सविससप्पं व ॥१९७ पत्थरमया वि दोणी पत्थरमप्पाणयं च वोलेइ । जह तह कुच्छियपत्तं संसारे चेव वोलेइ ॥१९८ णावा जह सच्छिद्दा परमप्पाणं च उवहिसलिलम्मि । वोलेइ तह कुपत्तं संसारमहोवही भीमे ॥१९९ कान खरगोशके समान, कितनोंके पूरीके समान गोल, कितनोंके चौड़े और कितनोंके लम्बे कान होते हैं । कितने ही मनुष्योंके पूंछ होती है और कितने ही मनुष्य भाषा-रहित होते हैं अर्थात बोल नहीं पाते हैं ॥ १८९-१९०॥ इस प्रकार अढ़ाई द्वीपवर्ती कुभोगभूमियोंमें उक्त प्रकारके कुमानुष होते हैं तथा इसी प्रकार हीनाधिक अंगवाले कुभोगभूमिज तिथंच भी होते हैं और मानुषोत्तर पर्वतसे बाहिर असंख्यात द्वीपोंमें भी वे कुभोगभूमिज तिर्यच होते हैं । १९१ ।। कुभोगभूमिज ये सब मनुष्य और तिथंच मन्द कषायवाले और सर्वप्रकारकी व्याधियोंसे रहित होते हैं । ये मरकरके व्यन्तर, ज्योतिषी और भवनवासी देवोंमें उत्पन्न होते हैं ॥ १९२ ।। वहाँसे च्युत होकर वे पुनः मनुष्य और तिर्यञ्च उत्पन्न होते हैं। वहां पर अनेक प्रकारके पाप करके वे नरकके पथगामी होते हैं ॥ १९३ । वर्तमानमें जो चाण्डाल, भील, छीपा, डोम, कलाल, आदि नीच जातिके लोग धन-वैभवसे सम्पन्न दिखाई देते हैं, वे सब कुत्सित पात्रोंको दान देनेके फलसे ही धनी हुए हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥ १९४ ॥ इस मनुष्य लोकमें राजाओंके घर जो कितने ही हाथी घोड़े आदि उन्नतिको प्राप्त और सुखी दिखाई देते हैं, वह सब कुपात्र दानका ही फल समझना चाहिए ॥ १९५ ॥ कुपात्रोंको दान देनेवाले कितने ही मनुष्य देवलोकमें भी उत्पन्न होते हैं, परन्तु वहां पर वे वाहनोंका रूप धारण करने वाले देवोंके उत्पन्न होते हैं और उत्तम देवोंकी ऋद्धिको देखकर अपनी जातिके दुःखका शोक करते हैं। १९६ ॥ इस प्रकार कुपात्र-दानके अनेक दोषोंको जान कर स्वप्न में भी कुपात्रोंका सम्मान नहीं करना चाहिए। उन्हें विषधर सर्पके समान समझ कर सदा दूरसे ही परिहार करना चाहिए ।। १९७॥ जिस प्रकार पत्थरकी बनी और पत्थरोंसे भरी हुई नाव स्वयं भी डूबती है और उन भरे हुए पत्थरोंको भी डुबाती है, उसी प्रकार ये कुपात्र स्वयं भी संसारमें डूबते हैं और दान देनेवाले दातारोंको या सम्मान करने वालोंको भी संसारमें डुबाते हैं ॥ १९८ ॥ जिस प्रकार छिद्र वाली नाव समुद्रके जलमें स्वयं डूबती है और बैठनेवाले दूसरोंको भी डुबाती है, उसी प्रकार कुपात्र स्वयं भी संसाररूप महोदधिमें स्वयं भी डूबता है और अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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