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________________ ४४८ श्रावकाचार-संग्रह अहवा खिप्पउ सा(से)हां णिस्सेउ करंगुलीहिं वामेहिं । पाए णाही हियए मुहे य सोसे य ठविऊणं ॥८६ अंगे णासं किच्चा इंदो हं कपिऊण णियकाए । कंकण सेहर मुद्दी कुणओ जण्णोपवीयं च ॥८७ पोढं मेरु कप्पिय तस्सोवरि ठाविऊण जिणपडिमा। पच्चक्खं अरहतं चित्ते भावेउ भावेण ॥८८ कलसचउक्कं ठाविय चउस विकोणेस णीरपरिपण्णं । __घयदुद्धदहियभरियं णवसयदलछण्णमुहकमलं ॥८९ आवाहिऊण देवे सुरवइसिहिकालणेरिए वरुणे। पवणे जखे ससूली सपियसवाहणे ससत्थे य ॥९० पाऊण पज्जदव्वं बलिचरुयं तह य जण्णभायं च । सव्वेसि मंतेहि य वीतक्खरणामजहि ॥९१ उच्चारिऊण मंते अहिसेयं कुणउ देवदेवस्स । णीरघयखीरदहियं खिवउ अणुक्कमेण जिणसीसे ॥९२ ण्हवणं काऊण पुणो अमलं गंधोवयं च वंदित्ता । सवलहणं च जिणिंदे कुणऊ कस्सीरमलएहि ॥९३ आलिहउ सिद्धचक्कं पट्टे दम्वेहि णिरुसुयंधेहि । गुरुउवएसेण फुडं संपण्णं सध्वमतेहिं ॥१४ सोलदलकमलमज्झे अरिहं विलिहेह बिंदुकलसहियं । बंभेण वेढइत्ता उरि पुणु मायवीएण ॥९५ सोलससरेहि वेढहु देहवियप्पेण अट्ठवग्गा वि । अट्टहि दलेहि सुपयं अरिहंताणं णसो सहियं ॥९६ मायाए तं सव्वं तिउणं वेढेह अंकुसारूढं । कुणह धरामण्डलयं बाहिरयं सिद्धचक्कस्स ॥९७ ललाट, हस्त, पादादिकी शुद्धि करनी चाहिए ॥ ८५ ॥ अथवा सरसोंको सर्व दिशागत विघ्नोंके निवारणार्थ फेंककर वाम हस्तकी अंगुलियोंसे पैर, नाभि, हृदय, मुख और शिर पर पंच परमेष्ठीको स्थापित करे ।। ८६ ।। तत्पश्चात् अंगन्यास करके 'मैं इन्द्र हूँ' ऐसी कल्पना करके कंकण, मुकुट, मुद्रिका और यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए ॥ ८७ ।। तदनन्तर सिंहासनको सुमेरु की कल्पना करके और उसके ऊपर जिन-प्रतिमाको स्थापित करके भावोंसे मनमें ऐसी भावना करे कि ये साक्षात् अरहन्त भगवान् विराजमान हैं ।। ८८ ॥ तत्पश्चात् सिंहासनके चारों कोों में जलसे परिपूर्ण चार कलश स्थापन कर घी, दूध, दहीसे भरे और शतपत्र कमलसे ढंके हुए कलशोंको स्थापित करना चाहिए ॥ ८९ ॥ पुनः इन्द्र, अग्नि, काल ( यम), नैऋत, वरुण, पवन, कुबेर, ईशान, धरणेन्द्र और चन्द्रको उनकी पत्नी, वाहन और शास्त्र-सहित पूर्वादि दशों दिशाओंमें क्रमसे आवाहन करके स्थापित करना चाहिए ।। ९० ।। तत्पश्चात् इन दशों दिग्पालोंको बीजाक्षरनामसे युक्त मंत्रोंके साथ पूजाद्रव्य, बलि, नैवेद्य और यज्ञभाग देकर मंत्रोंका उच्चारण करते हुए देवोंके देव श्री अरहन्त देवका अभिषेक करना चाहिए और अनुक्रमसे जिनदेवके शिर पर जल, घी, दूध और दही की धारा छोड़नी चाहिए ॥ ९१-९२ ।। इस प्रकार भगवान्का अभिषेक करके और निर्मल गन्धोदकका वन्दन करके कश्मोर-केशर और चन्दन आदिसे भगवान्का उद्वर्तन करना चाहिए। ( अन्तमें चारों कोणों पर स्थित शुद्ध जलसे अभिषेक करना चाहिए ) ।। ९३ ॥ तत्पश्चात् किसी पट्ट पर अत्यन्त सुगन्धित द्रव्योंसे गुरुके उपदेशानुसार सर्व मंत्रोंसे संयुक्त सिद्ध चक्रको लिखना चाहिए ।। ९४ ।। उसके लिखनेको विधि यह है-सोलह पत्रका एक कमल बना कर उसके मध्यमें कणिका पर बिन्दु और कला-सहित अर्ह अर्थात् 'ह' लिखना चाहिए । फिर उसे ब्रह्म-स्वर अर्थात् ॐ से वेष्टित करना चाहिए। फिर उन सबको माया बीजसे अर्थात् तीन रेखाओंसे वेष्टित करना चाहिए। पुनः सोलह स्वरोंसे और कवर्गादिस वेष्टित करें और पत्तोंकी नोक पर 'णमो अरिहंताणं' लिखे । पश्चात् सबको ही बोजाक्षरसे त्रिगुण वेष्टित कर उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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