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________________ श्रीदेवसेनविरचित प्राकृत-भावसंग्रह इय संखेवं कहियं जो पूयइ गंधदोवधूवेहिं । कुसुमेहि जवइ णिच्चं सो हणइ पुराणयं पावं ॥९८ जो पुणु वड्डद्दा(खा)रो सम्वो भणिओ हु सिद्धचक्कस्स। __सो एइ ण उद्धरिओ इहि सामग्गि ण उ तस्स ॥९९ जइ पुज्जइ को वि णरो उद्घारिता गुरूवएसेण । अट्टदलविउणतिउणं चउग्गुणं बाहिरे कंजे ॥१०० मज्झे अरिहं देवं पंचपरमेट्रिमंतसंजुत्तं । लहिऊण कणियाए अट्टदले अट्टदेवीओ॥१०१ ।। सोलहदलेसु सोलहविज्जादेवीउ मंतसहियाओ। चउवीसं पत्तेसु य जक्खा जक्खी य चउकीसं ॥१०२ बत्तीसा अरिंदा लिहेह बत्तीसकंजपत्तेसु । णियणियमंतपउत्ता गणहरवलएण वेढेह ॥१०३ सत्तप्पयाररेहा सत वि विलिहेह वज्जसंजुत्ता। चउरंसो चउदारा कुणह पयत्तेण जुत्तीए ॥१०४ एवं जंतुद्धारं इत्थं मइ अक्खियं समासेण । सेसं कि पि विहाणं णायव्वं गुरुपसाएण ॥१०५ अट्टविहअच्चणाए पुज्जेयध्वं इमं खुणियमेण। दध्वेहिं सुअंधेहि य लिहियव्वं अइपवितहि ॥१०६ जो पुज्जइ अणवरयं पावं णिद्दहइ आसिभवबद्धं । पडिदिणकयं च विहुणइ बंधइ पउराई पुण्णाई ॥१०७ अंकुशसे रोक देना चाहिए। और इस सिद्धचक्रके बाहर पृथ्वी चक्रको लिखना चाहिए ॥९५-९७ ।। इसकी रचना इस प्रकार है सिद्धचक्र यन्त्र ___ इस प्रकार संक्षेपसे यह सिद्धचक्रका विधान कहा। जो पुरुष गन्ध, दीप, धूप और पुष्पोंसे इस यंत्रकी पूजा करता है, तथा नित्य उसका जप करता है, वह अपने पूर्व-संचित पापका विनाश कर देता है॥९८॥ और जो सिद्धचक्रका बृहद् उद्धार कहा गया है, वह यहां नहीं कहा गया है, क्योंकि इस समय उसकी सामग्री प्राप्त नहीं है ॥९९।। यदि कोई मनुष्य गरुके उपदेशसे उद्धार करके पूजना चाहे तो उसे बीच में कणिका रखकर वलय देकर उसके बाहिर आठ दलका कमल बनावे । फिर वलय देकर सोलह दलका कमल बनावे। फिर वलय देकर चौबीस दलका कमल बनावे और फिर वलय देकर उसके बाहिर बत्तीस दलका कमल बनावे। इस कमलके मध्यमें कणिकापर पंचपरमेष्ठीमंत्र सहित अरहंत परमेष्ठीको लिखे। चारों दिशाओंमें शेष चार परमेष्ठियोंको लिखे और विदिशाओं में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र और तपको लिखे। पुनः बाहिरके आठ दलोंपर जया आदि आठ देवियोंके नाम लिखे । पुनः बाहिरके सोलह दलों पर मन्त्रसहित सोलह विद्या देवियोंको लिखे । पुनः बाहिरके चौबीस दलों पर चौबीस यक्ष और यक्षियोंको लिखे । पुनः बाहिरके बत्तीस दलों पर बत्तीस इन्द्रोंको लिखे । इन सबको अपने-अपने मन्त्र-सहित लिखना चाहिए। पुनः इस यन्त्रको गणधर वलयसे वेष्टित करे। तथा सात प्रकारकी रेखाएं वज्रसंयुक्त लिखना चाहिए। चारों ओर चार द्वार बनाना चाहिए। इस प्रकार युक्तिपूर्वक इस मन्त्रका उद्धार करना चाहिए ॥ १००-१०४ ॥ इस यन्त्रका आकार इस प्रकार है इस प्रकार मैंने यह यंत्रोद्धारका स्वरूप संक्षेपसे कहा है। शेष विशेष विधान गुरुओंके प्रसादसे जान लेना चाहिए ।। १०५ ।। इस यंत्रको अति पवित्र सुगंधित द्रव्योंसे लिखना चाहिए और नियमपूर्वक आठों द्रव्योंसे प्रतिदिन पूजन करना चाहिए ।। १०६ ॥ जो पुरुष प्रतिदिन इस यंत्रका पूजन करता है, वह अपने पूर्वभव-संचित पापोंको जला देता है और प्रतिदिन किये गये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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