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________________ श्रीदेवसेनविरचित प्राकृत-भावसंग्रह तम्हा सम्मादिट्टी पुण्णं मोक्खस्स कारणं हवई । इय णाऊण गिहत्थो पुण्णं चायरउ जत्तेण ॥७५ पुण्णस्स कारणं फुडु पढमं ता हवइ देवपूया य । कायव्वा भत्तीए सावयवग्गेण परमायं ॥७६ फासुयजलेण व्हाइय णिवसिय वत्थाई गंपि तं ठाणं। इरियावहं च सोहिय उवविसियं पडिमयासेणं ॥७७ पुज्ज-उवयरणाइ य पासे सण्णिहिय मंतपुव्वेण । पहाणेणं व्हाइत्ता आचमणं कुणउ मंतेण ॥७८ __ आसणठाणं किच्चा सम्मत्तपुव्वं तु झाइए अप्पा। सिहिमंडलमज्झत्थं जालासयजलियणियदेहं ॥७९ पावेण सह सदेहं झाणे डझंतयं खुचितंतो। बंधउ संतीमुद्दा पंचपरमेट्ठीणामाय ॥८० अमयक्खरे णिवेसउ पंचसु ठाणेसु सिरसि धरिऊण। सा मुद्दा पुणु चितउ धाराहि सवतयं अमयं ॥८१ पावेण सह सरीरं दडढ़ जं आसि झाणजलणेण । तं जायं जं छारं पक्खालउ तेण मंतेण ॥८२ पडिदिवसं जं पावं पुरिसो आसवइ तिविहजोएण । तं णिद्दहइ णिरुत्तं तेण ज्झाणेण संजुत्तो ॥८३ जं सुद्धोतं अप्पा सकायरहिओ य कुणइ ण हु कि पि । तेण पुणो णियदेहं पुण्णण्णवं चितए झाणी ॥८४ उद्याविऊण देहं सु संपण्णं कोडिचंदसंकासं । पच्छा सयलीकरणं कुणओ परमेट्ठिमंतेण ॥८५ संयमको और केवलज्ञानको पाकर नियमसे सिद्ध पदको प्राप्त कर लेता है ।। ७४ ।। इस कारण सम्यग्दृष्टिका पुण्य मोक्षका कारण होता है । ऐसा जानकर गृहस्थको प्रयत्नपूर्वक पुण्यका उपार्जन करते रहना चाहिए ॥ ७५ ॥ __ पुण्यके कारणों में सबसे प्रथम देव-पूजा है, इसलिए श्रावक जनोंको परम भक्तिके साथ भगवान्की पूजा करनी चाहिए ।। ७६ ।। पूजा करनेवाले गृहस्थको सबसे पहले प्रासुक जलसे स्नान करना चाहिए, पुनः शुद्ध वस्त्र पहन कर पूजनके स्थान पर ईर्यापथ शुद्धिसे जाकर पद्मासनसे बैठना चाहिए। तत्पश्चात् पूजनके उपकरण अपने समीप रखकर मंत्र-स्नानसे नहाकर मंत्रपूर्वक आचमन करना चाहिए ।। ७७७८ ।। पनः त्रिकोण अग्नि-मंडलके मध्यमें अपना आसन लगाकर बैठे और सम्यक प्रकारसे परमात्माका ध्यान करे। उसे ध्यान में अग्नि-मंडलसे निकलती हुई सैकड़ों ज्वालाओंसे अपने शरीरको जलता हुआ चिन्तवन करे ॥ ७९ ॥ उस समय ध्यानमें ऐसा विचार करे कि 'पापोंके साथ मेरा शरीर जल रहा है। पुन: पंच परमेष्ठीके नामवाली शान्तिमुद्रा बाँधनी चाहिए ॥ ८० ।। उस शान्ति मुद्राको शिर पर रख कर पांच स्थानोंमें अमृताक्षरोंकी स्थापना करे और ऐसा चिन्तवन करे कि पांचों अमृताक्षरोंसे अमृत झर रहा है ।। ८१ ॥ पहले ध्यानकी ज्वालासे पापोंके साथ जो शरीर जल गया था और क्षार ( राख ) उत्पन्न हुई थी उसे उस अमृत मंत्ररूप जलसे धो डालना चाहिए ॥ ८२ ॥ मनुष्य प्रतिदिन मन वचन कायरूप विविध योगसे जो पापका आस्रव करता है, उसे उक्त ध्यानसे संयुक्त पुरुष निःशेष रूपसे जला देता है।। ८३ । इस प्रकार ध्यानमें शरीर-रहित हुआ आत्मा यतः अत्यन्त शुद्ध हो चुका है अतः वह कुछ भी पाप-कर्म नहीं कर सकता। इसलिए ध्यान करनेवाले पुरुषको अपना शरीर एक पुण्यके समुद्र रूप में चिन्तवन करना चाहिए ।। ८४ ।। तदनन्तर कोटि-चन्द्र-सदृश निमल सम्पूर्ण शरीरको चिन्तवन करते हुए उठकर पंच परमेष्ठीके मंत्रमें सकलीकरण करना चाहिए । अर्थात् हृदय, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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