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________________ श्रीदेवसेनविरचित प्राकृत-भावसंग्रह जं पुणु वि णिरालवं तं झाणं गयपमायगुणठाणे । चत्तगेहस्स जाइय परियंजिलिंगस्वस्स ॥३२ जो भणइ को वि एवं अत्थि निहत्याण णिच्चलं माणं। सुद्धं च णिरालंवं ण मुणह सो आयमो जहणो ॥३३ कहियाणि दिद्विवाए पडुच्च गुणठाण जाणि माणाणि । तम्हा सं देसविरओ मुक्खं धम्मं ण झाएई ॥३४ कि जं सो गिहवंतो बहिरंतरगंथपरिमिओ णिच्चं । बहुआरंभपउत्तो कह शायइ सुद्धमप्पाणं ॥३५ घरवावारा केई करणीया अस्थि तेण ते सव्वे । झाट्ठियस्स पुरमओ चिटुंति णिमोलियन्छिस्स ॥३६ अह ढिकुलिया झाणं झायइ अहवा स सोवए माणी। सोवंतो झायव्वं ग ठाइ चित्तम्मि वियलम्मि ॥३७ झाणाणं संताणं अहवा जाएड तस्स झाणस्स । आलंवणरहियस्स य ठाह चित्तं चिरं जम्हा ॥३८ तम्हा सो सालंवं झायउ झाणं पि गिहवई णिच्वं । पंचपरमेट्रीरूवं अहवा मंतक्खरं तेसि ॥३९ जइ भणइ को वि एवं गिहवावारेसु वट्टमाणो वि। पुण्णे अम्ह ण कज्जं जं संसारे सुवाडेई ॥४० जो निरालम्ब ध्यान है, वह प्रमाद-रहित सप्तम गुणस्थानमें गृहत्यागी और जिनलिंगरूपको धारण करनेवाले अप्रमत्त अर्थात् आत्म-स्वरूप में जागृत साधुओंके होता है ।। ३२ ।। कोई पुरुष यदि यह कहे कि गृहस्थोंके भी शुद्ध निश्चल निरालम्ब ध्यान होता है तो वह जैन आगमको नहीं जानता है ।। ३३ ॥ दृष्टिवाद नामक बारहवें अंगमें गुणस्थानोंकी अपेक्षासे ही जिन ध्यानोंको बतलाया गया है, उन्हें देशविरति गृहस्थ नहीं कर सकता । अतः वह मुख्य निरालम्ब ध्यानका ध्यान नहीं करता है ।। ३४ ॥ गृहस्थोंके मुख्य धर्मध्यान न होनेका कारण यह है कि गृहस्थोंके बाहिरी और भीतरी परिग्रह परिमित रूपसे रहते ही हैं, और वह बहुत प्रकारके आरम्भोंमें प्रवृत्त रहता है, फिर वह शुद्ध आत्माका ध्यान कैसे कर सकता है ॥ ३५ ॥ गृहस्थको घरके कितने ही व्यापार करने पड़ते हैं। जब वह गहस्थ अपनी आंखोंको बन्द करके ध्यान करनेके लिए बैठता है, तब उसके सामने घरके करने योग्य सभी व्यापार आकर उपस्थित हो जाते हैं ।। ३६ ॥ यदि कोई गृहस्थ शुद्ध आत्माका ध्यान करना चाहता है तो उसका वह ध्यान ढेकीके समान होता है। जिस प्रकार ढेकी धान कूटने में लगी रहती है, परन्तु उससे उसे कोई लाभ नहीं होता, उसको तो परिश्रममात्र ही होता है। इसी प्रकार गृहस्थोंका निरालम्ब ध्यान या शुद्ध आत्माका ध्यान परिश्रममात्र ही होता हैं। अथवा वह शुद्ध आत्माका ध्यान करनेवाला गृहस्थ आलम्बनके विना सोने लगता है। उस सोती दशामें उसका चित्त विकल हो जाता है, तब वहाँ शुद्ध ध्यान नहीं ठहर सकता। कहनेका सारांश यह है कि इस प्रकार किसी भी गृहस्थके शुद्ध आत्माका निश्चल ध्यान संभव नहीं है ॥ ३७ ॥ अथवा यदि गृहस्थ ध्यानके समय सोता नहीं, किन्तु जागृत रहता है तो उसके ध्यानों ( विचारों ) की सन्तान रूप परम्परा चलती रहती है। क्योंकि आलम्बन-रहित गृहस्थका चित्त स्थिर नहीं रहता है ।। ३८ ।। इसलिए गहस्थोंको सदा ही आलम्बनसहित ध्यान धारण करना चाहिए। उसे या तो पंचपरमेष्ठीका ध्यान करना चाहिए, अथवा पंचपरमेष्ठीके वाचक मंत्राक्षरोंका ध्यान करना चाहिए ॥ ३९ ॥ यदि कोई गृहस्थ यह कहे कि यद्यपि हम गृहस्थीके व्यापारोंमें लगे रहते हैं, तथापि हमें सालम्ब ध्यान करके पुण्य उपार्जन करनेकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह पुण्य भी हमें संसारमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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