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________________ श्रावकाचार-संग्रह अहउड्ढतिरियलोए चितेइ सपज्जयं ससंठाणं । विचयं संठाणस्स य भणियं झाणं समासेण ॥२१ मुक्खं धम्मज्झाणं उत्तं तु पमायविरहिए ठाणे । देसविरए पमत्ते उवयारेणेव णायव्वं ॥२२ दहलक्खणसंजुत्तो अहवा धम्मोत्ति वण्णिओ सुत्ते । चिंता जा तस्स हवे भणियं तं धम्मज्झाणुत्ति ॥ २३ अहवा वत्थुसहावो धम्मं वत्थू पुणो व सो अप्पा | झायंताणं कहियं धम्मज्झाणं मुणिदेहि ॥२४ तं फुडु दुविहं भणियं सालंवं तह पुणो अणालंवं । सालंवं पंचण्हं परमेट्ठीगं सरूवं तु ॥ २५ हरिरसमवसरणो अट्टमहापाडिहेरसंजुत्तो । सियकिरण- विष्फुरंतो झायव्वो अरुहपरमेट्ठी ॥ २६ कम्मबंधो अट्ठगुणट्ठो य लोयसिहरत्थो । सुद्धो णिच्चो सुहमो झायव्वो सिद्धपरमेट्ठी ॥ २७ छत्तीसगुणसमग्गो णिच्चं आयरह पंचआयारो । सिस्साणुग्गहकुसलो भणिओ सो सूरिपरमेट्ठी ॥२८ अज्झावयगुणजुत्तो धम्मोवदेसयारि चरियट्ठो । णिस्सेसागमकुसलो पर मेट्ठी पाठओ झाओ ॥२९ उगतवत विगत्तोतियालजोएण गमियअहरत्तो । साहियमोक्खस्स पओ झाओ सो साहुपरमेट्ठी ॥३० एवं तं सालंवं धम्मज्झाणं हवेई नियमेण । झायंताणं जाइय विणिज्जरा असुहकम्माणं ॥३१ करनेको जिनवरदेवने विपाकविचय नामका धर्मध्यान कहा है || २० || संस्थान नाम आकारका है । अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोकके आकारका विचार करना, इनमें रहनेवाले जीवादि पदार्थों की पर्याय आदिका चिन्तवन करना इसे संक्षेपसे संस्थानविचय धर्मध्यान कहा गया है | २१ || मुख्य रूप से यह धर्मध्यान प्रमाद-रहित सातवें गुणस्थानमें कहा गया है। देशविरत और प्रमत्तविरत नामक गुणस्थानोंमें तो उपचारसे ही धर्मध्यान जानना चाहिए ।। २२ । अब प्रकारान्तरसे धर्मध्यानका स्वरूप कहते हैं- -अथवा सिद्धान्त सूत्र में उत्तम क्षमा आदि दश प्रकारका धर्म बतलाया गया है, उनके चिन्तवन करने को भी धर्मध्यान कहा गया है ॥ २३ ॥ अथवा वस्तुके स्वभावको धर्म कहते हैं । सर्व वस्तुओंमें आत्मा मुख्य है, अतः आत्माके ध्यान करनेको मुनीन्द्रोंने धर्मध्यान कहा है ॥ २४ ॥ वह धर्मध्यान दो प्रकारका है-एक आलम्बनसहित और दूसरा आलम्बन-रहित । पाँच परमेष्ठियोंके स्वरूपका चिन्तन करना सालम्बन-धर्मध्यान है || २५ ॥ ४४२ अब अनुक्रमसे पांचों परमेष्ठियों का स्वरूप कहते हैं- जो इन्द्र द्वारा रचित समवशरण में विराजमान हैं, आठ महाप्रातिहार्योंसे संयुक्त हैं, और अपनी प्रभाकी श्वेत किरणोंसे प्रकाशमान हैं ऐसे जिनेन्द्रदेवको अरहन्त परमेष्ठी कहते हैं उनका ध्यान करना चाहिए || २६ || जिन्होंने आठों कर्मोंके बन्धनों को नष्ट कर दिया है, जो सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंसे संयुक्त हैं, लोकके शिखर पर विराजमान हैं, जो शुद्ध नित्य और सूक्ष्म स्वरूप हैं, वे सिद्ध परमेष्ठी कहलाते हैं । उनका ध्यान करना चाहिए ॥ २७ ॥ जो छत्तीस गुणोंसे सम्पन्न हैं, ज्ञानाचारादि पाँचों आचारोंका नित्य आचरण करते हैं, और शिष्योंके अनुग्रह करने में कुशल हैं, वे आचार्य - परमेष्ठी कहे जाते हैं उनका ध्यान करना चाहिए ॥ २८ ॥ जो द्वादशाङ्ग वाणीके अध्यापन करनेके गुणसे युक्त हैं, धर्मका उपदेश करते हैं, अपने चारित्र में स्थित हैं, समस्त आगमके पठन-पाठनमें कुशल हैं, वे उपाध्यायपरमेष्ठी हैं, उनका ध्यान करना चाहिए ॥ २९ ॥ उग्र, महा उग्र आदि तपोंके द्वारा जिनका शरीर खूब तपा हुआ है, जो त्रिकाल योगसे दिन और रात्रिको व्यतीत करते हैं और सदा मोक्ष मार्गका साधन करते हैं उन्हें साधुपरमेष्ठी कहते हैं, उनका ध्यान करना चाहिए ॥ ३० ॥ इस प्रकार पांचों परमेष्ठियोंके आलम्बनसे जो ध्यान किया जाता है, वह सालम्ब ध्यान कहलाता है । इस सालम्ब ध्यानको करनेवाले जीवोंके अशुभ कर्मोंकी निर्जरा नियमसे होती है ॥ ३१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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