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________________ श्रीदेवसेनविरचित प्राकृत-भावसंग्रह अट्टज्झाणपउत्तो बंधइ पावं णिणंतरं जीवो। मरिऊण य तिरियगई को वि रोजाइ तज्झाणे ॥११ रुदं कसायसहियं जीवो संभवइ हिंसयाणंदं । मोसाणंदं विदियं तेयाणंदं पुणो तइयं ॥१२ हवइ चउत्थं झाणं रुई णामेण रक्खणाणंदं । जस्स य माहप्पेण य णरयगईभायणो जीवो॥१३ गिहवावाररयाणं गेहीणं इंदियस्थपरिकलिय | अट्टज्झाणं जायइ रुदं वा मोहछण्णाणं ॥१४ झाणेहिं तं पावं उप्पण्णं तं खवइ भद्दझाणेण । जीवो उवसमजुत्तो देसजई णाणसंपण्णो ॥१५ भद्दस्स लक्खणं पुण धम्म चितेई भोयपरिमुक्को। चितिय धम्म सेवइ पुणरवि भोए जहिच्छाए ॥१६ धम्मज्झाणं भणियं आणापायाविवायविचयं च । संठाणं विचयं तह कहियं झाणं समासेण ॥१७ छद्दव्वणवपयत्था सत्त वि तच्चाई जिणवराणाए। चितइ विसयविरत्तो आणाविचयं तु तं भणियं ॥१८ असुहकम्मस्स णासो सुहस्स वा हवेइ केणुवाएण । इय चितंतस्स हवे अपायविचयं परं झाणं ॥१९ असुहसुहस्स विवाओ चितइ जीवाण चउगइगयाण । विवायविचयं झाणं भणियं तं जिणवारदेहिं ॥२० तीसरा आर्तध्यान है और निदान करना चौथा आर्तध्यान है ॥ १०॥ इस आर्तध्यानमें उपयुक्त जोव निरन्तर पापकर्मका बन्ध करता है । इस आर्तध्यानमें मरण करके मनुष्य तियंचगतिको जाता है ॥ ११ ॥ ___ अब रौद्रध्यानका वर्णन करते हैं-तीव्र कषाययुक्त जीवके रौद्रध्यान होता है । हिंसा करने में आनन्द मानना पहिला रोद्रध्यान है। असत्य बोलने में आनन्द मानना दूसरा रोद्रध्यान है। चोरी करनेमें आनन्द मानना तीसरा रौद्रध्यान है और परिग्रहके संचय और संरक्षणमें आनन्द मानना चौथा रौद्रध्यान है। इस रौद्रध्यानके माहात्म्यसे जीव नरकगतिका भाजन होता है ।। १२-१३ ॥ ... जो मनुष्य घरके व्यापारमें लगे रहते हैं और इन्द्रियोंके विषयभूत पदार्थोंके संकल्प-विकल्प करते रहते हैं, उनके आर्तध्यान होता है । तथा जिनके मोहकर्मके तीव्र उदयसे कषायोंकी प्रबलता होती है उनके रौद्रध्यान होता है ॥ १४ ॥ इस आर्तध्यान और रौद्रध्यानसे जो पाप उत्पन्न होता है उसे उपशमभावसे युक्त और ज्ञान-सम्पन्न देशयति श्रावक भद्रध्यानसे क्षय कर देता है ।। १५॥ ___ अब भद्रध्यानका वर्णन करते हैं जो भोगोंका त्यागकर धर्मका चिन्तन करता है और धर्मका चिन्तवन करके फिर भी अपनी इच्छानुसार भोगोंका सेवन करता है, उसके भद्रध्यान जानना चाहिए। अन्यत्र जिनदेवका पूजन करना, पात्र दान देना आदि श्रावकोचित कर्तव्योंके पालन करनेको भी भद्रध्यान कहा है' ।। १६ ।। ____ अब धर्मध्यानका निरूपण करते हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये धर्मध्यानके संक्षेपसे चार भेद कहे गये हैं ।। १७ ।। जो मनुष्य इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होकर जिनदेवको आज्ञासे छह द्रव्य, सात तत्व और नौ पदार्थोंका चिन्तन करता है उसको आज्ञाविचयनामका धर्म ध्यान कहा गया है। १८ ।। अशभ कार्यका नाश कैसे होगा, अथवा किस उपायसे सुखको प्राप्ति होगी, ऐसा चिन्तन करनेवालेके अपायविचयनामका धर्मध्यान होता है ॥ १९ ।। चारों गतियों में परिभ्रमण करनेवाले जीवोंके शुभ-अशुभ कर्मके विपाकका चिन्तवन [१. जिनेज्या पातदानादिस्तत्र कालोचितो विधिः । भद्रध्यानं स्मृतं तद्धि गृहधर्माश्रयाद् बुधैः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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