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________________ श्री देवसेनविरचित प्राकृत-भावसंग्रह पंचमयं गुणठाणं विरयाविरउत्ति णामयं भणियं । तत्य विखयउवसमियो खाइमओ उसमो चेव ॥१ जो तसवहाउविरमओ णो विरगो तह य थावरवहाओ। एक्कसमयम्मि जीवो विरयाविरउत्ति जिणु कहई ॥२ इलयाइथावराणं अत्थि पवित्तित्ति विरइ इयराणं । मूलगुणट्ठपउत्तो बारहवयभूसिओ हु देसजइ ॥३ हिंसाविरई सच्चं अदत्तपरिवज्जणं च थूलवयं । परमहिलापरिहारो परिमाणं परिग्गहस्सेव ॥४ दिसिविविसिपच्चखाणं अणत्थदंडाण होइ परिहारो। भोओपभोयसंखा एए हु गुणव्वया तिण्णि ॥५ देवे थुवइ तियाले पव्वे पव्वे सुपोसहोवासं । अतिहीण संविभागो मरणंते कुणइ सल्लिहणं ॥६ महुमज्जमंसविर ई चाओ पुण उंबराण पंचण्हं । अट्टेदो मूलगुणा हवंति फुड देसविरयम्मि ॥७ अट्टउदं झाणं भदं अत्यत्ति तम्हि गुणठाणे । बहुआरंभपरिग्गहजुत्तस्स य पत्थि तं धम्मं ॥८ धम्मोदएण जीवो असुहं परिचयइ सुहगई लेई । कालेण सुक्ख मिल्लइ इंदियवलकारणं जाणि ॥९ इट्ठविओए अट्ट उप्पज्जइ तह अणि?संजोए । रोयपकोवे तइयं णियाणकारणे चउत्थं तु ॥१० भगवान् जिनेन्द्रदेवने पांचवें गुणस्थानका नाम विरताविरत कहा है। इस गुणस्थानमें क्षायोपशमिक, क्षायिक और औपशमिक भाव होते हैं ।। १ ।। जो जीव हिंसासे विरत हैं और स्थावर-हिंसासे अविरत हैं, उसे एक ही समयमें जिनदेवने विरताविरत कहा है ॥ २ ॥ पांचवें गुणस्थानमें रहनेवाले इस विरताविरतकी प्रवृत्ति पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति रूप स्थावर जीवोंके घात करनेमें होती है, तथा द्वीन्द्रियादि त्रस जीवोंके घातमें प्रवृत्ति नहीं होती है । यह विरताविरत रूप देशयति आठ-मूलगुणोंसे युक्त और श्रावकके बारह व्रतोंसे विभूषित होता है।॥ ३ ॥ अब बारह व्रतोंको कहते हैं-त्रसहिंसाका त्याग करना, सत्य बोलना, अदत्तवस्तु परित्याग, परमहिला-परिहार और परिग्रहका परिमाण करना ये पाँच अणुव्रत हैं ॥ ४ ॥ दिशाओं और विदिशाओंमें जाने आनेकी सीमा नियत करना, अनर्थदण्डका परिहार करना और भोगोपभोगकी संख्याका नियम करना ये तीन गुणव्रत हैं ।। ५॥ प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल देवस्तवन करना, प्रत्येक पर्वपर प्रोषधोपवास करना, अतिथि संविभाग करना और मरणके समय संलेखना करना ये चार शिक्षाक्त हैं ।। ६ ॥ मधु, मद्य. मांस और पाँच उदुम्बर फलोंके खानेका त्याग करना ये आठ मूलगुण देशविरत गुणस्थान में नियमसे होते हैं ।। ७ ।। इस पंचम गुणस्थानमें आतंध्यान, रोद्रध्यान और भद्रध्यान ये तोन ध्यान होते हैं । इस गुणस्थानवाले गृहस्थके बहुत आरम्भ और परिग्रहसे युक्त होनेके कारण धर्मध्यान नहीं होता है ।। ८ ॥ धर्म-सेवन करनेसे जीव अशुभ भावका त्याग करता है और शुभगतिको प्राप्त होता है । तथा समयानुसार इन्द्रियोंको बल देनेवाला सुख मिलता है, ऐसा जानना चाहिए ॥ ९॥ अब आर्तध्यानका वर्णन करते हैं-किसी इष्ट वस्तुके वियोग होनेपर उसके संयोगका चिन्तन करना पहला आतंध्यान है । किसी अनिष्ट वस्तुके संयोग होनेपर उसके वियोगका चिंतन करना दूसरा आर्तध्यान है। रोगका प्रकोप होनेपर उसे दूर करनेका बार-बार चिन्तन करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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