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________________ पपनन्दिपञ्चविंशतिकागत श्रावकाचार ४३९ ते चाणुव्रतधारिणोऽपि नियतं यान्त्येव देवालयं तिष्ठन्त्येव महद्धिकामरपदं तत्रैव लब्ध्वा चिरम् । अत्रागत्य पुनः कुलेऽतिमहति प्राप्य प्रकृष्टं शुभं मानुष्यं च विरागतां च सकलत्यागं च मुक्तास्ततः ॥२४ पुंसोऽर्थेषु चतुर्षु निश्चलेतरो मोक्षः परं सत्सुखः शेषास्तद्विपरीतधर्मलिता हेया मुमुक्षोरतः। तस्मात्तत्पदसाधनत्वधरणो धर्मोऽपि नो सम्मतो यो भोगादिनिमित्तमेव स पुनः पापं बुधैर्मन्यते ॥२५ भव्यानामणुभिर्वृतैरनणुभिः साध्योऽत्र मोक्षः परं नान्यत्किञ्चिदिहैव निश्चयनयाज्जीवः सुखी जायते । सर्वं तु व्रतजातमीदृशधिया साफल्यमेत्यन्यथा संसाराश्रयकारणं भवति यत्तददुःखमेव स्फुटम् ॥२६ यत्कल्याणपरम्परार्पणपरं भव्यात्मनां संसृतो पर्यन्ते यवनन्तसौख्यसदनं मोक्ष ददाति ध्रुवम् । तज्जीयादतिदुर्लभं सुनरतामुख्यैर्गुणैः प्रापितं श्रीमत्पङ्कजनन्दिभिविरचितं देशव्रतोद्योतनम् ॥२७ जो देवपूजादि षट् आवश्यक कार्योंके करनेके साथ पंच अणुव्रतोंके धारी श्रावक हैं, वे मरकर नियमसे देवालय (स्वर्ग ) को जाते हैं और महान् ऋद्धिवाले देव पदको पाकर स्वर्गीय सुखोंको भोगते हुए चिरकाल तक वहीं रहते हैं। पुनः इस भूलोकमें आकर शुभ कर्मोदयसे अति महान् कुलमें मनुष्य जन्म लेकर, पुनः वैराग्यको धारण कर और सर्व प्रकारके परिग्रहको त्याग कर मुक्तिको प्राप्त होते हैं ॥ २४ ॥ . धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में अत्यन्त निश्चल और उत्तम सुखवाला मोक्ष ही है, इसलिए भव्य जीवोंको सदा मोक्ष पुरुषार्थका ही सेवन करना चाहिए। शेष पुरुषार्थ उससे विपरीत स्वभाव वाले हैं अतः वे मुमुक्षु जनोंके द्वारा छोड़ने योग्य हैं। धर्म नामक पुरुषार्थ यदि उस मोक्ष पदका साधन करनेवाला है, तो वह सज्जनोंके सम्मान्य है। किन्तु यदि वह केवल भोगका ही निमित्त हो तो ज्ञानी जन उसे पाप ही मानते हैं। कहनेका सार यह कि भोगनिमित्तक धर्म भी पाप है ॥ २५ ।। इस लोकमें भव्य जीवोंके अणुव्रतों और महाव्रतोंके द्वारा केवल मोक्ष ही साध्य है, अन्य कुछ भी नहीं। मोक्षमें ही निश्चय नयसे सच्चा सुखी होता है, इसलिए मोक्ष-प्राप्तिकी बुद्धिसे जो भी व्रत-समुदाय पालन किया जाता है, वह सफलताको प्राप्त होता है। किन्तु जो व्रतादिक पुण्योपार्जन करा करके संसारमें रहनेके कारण होते हैं, वे तो स्पष्टतया दुःखस्वरूप ही हैं ॥ २६ ॥ भावार्थ-मोक्षकी अभिलाषासे व्रतादिको धारण करना चाहिए । जो देशव्रतोद्योतन संसारमें भव्य जीवोंको इन्द्र, अहमिन्द्र, चक्रवर्ती आदि कल्याण (सुख ) परम्पराका अर्पण करनेवाला है और अन्तमें जो अनन्त सुखके सदन ( धाम ) मोक्षको नियमसे देता है, तथा जो उत्तम मनुष्यता आदि गुणोंसे प्राप्त होता है और जिसे श्रीमान् पद्मनन्दी आचायने रचा है, ऐसा यह देशव्रतोद्योतन संसारमें चिरकाल तक स्थायी रहे ।। २७ ॥ भावार्थ- श्रावकके एकदेशरूप व्रतोंका उद्योतन अर्थात् प्रकाश करनेवाला यह अधिकार चिरजीवी हो। इस प्रकार पद्मनन्दि-विरचित इस पंचविंशतिकामें देशव्रतोद्योतन नामका अधिकार समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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