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________________ ४३८ श्रावकाचार-संग्रह यत्र धावकलोक एव वसति स्यात्तत्र चैत्यालयो यस्मिन् सोऽस्ति च तत्र सन्ति यतयो धर्मश्च तैर्वर्तते । धर्मे सत्यघसञ्चयो विघटते स्वर्गापवर्गाश्रयं सौख्यं भावि नृणां ततो गुणवतां स्युः श्रावकाः सम्मताः ॥२० काले दुःखमसंज्ञके जिनपतेर्धमें गते क्षीणतां तुच्छे सामयिके जने बहुतरे मिथ्यान्धकारे सति । चैत्ये चैत्यगृहे च भक्तिसहितो यः सोऽपि नो दृश्यते यस्तत्कारयते यथाविधि पुनर्भव्यः स वन्द्यः सताम् ॥२१ बिम्बादलोन्नतियवोन्नतिमेव भक्त्या ये कारयन्ति जिनसा जिनाकृति वा । पुण्यं तदीयमिह वागपि नैव शक्ता स्तोतुं परस्य किमु कारयितुर्द्वयस्य || २२ यात्राभिः स्नपनैर्महोत्सवशतैः पूजाभिरुल्लोचकैर्नैवेद्येवंलिभिर्ध्वजैश्च कलशैस्तोर्यत्रिकैर्जागरैः । घण्टाचामरदर्पणादिभिरपि प्रस्तायं शोभां परां भव्याः पुण्यमुपार्जयन्ति सततं सत्यत्र चैत्यालये ॥२३ देखा नहीं है । तथा उनके द्वारा किन्हीं मनुष्योंका उपकार हुआ है, इस बात की भी संभावना नहीं की जा सकती है । किन्तु चिन्तामणि रत्न आदिके कार्योंको करनेवाला अर्थात् मनोवांछित पदार्थों को सदैव देनेवाला दाता अवश्य देखनेमें आता है ।। १९ ॥ जहाँ पर श्रावक लोग निवास करते हैं, वहाँ पर जिनमन्दिर अवश्य होता है और जहाँ पर जिनमन्दिर होता है, वहाँ पर मुनिजन आकर ठहरते हैं और उनके द्वारा धर्म प्रवर्तता है । धर्मका प्रवर्तन होने पर लोगोंके पापका संचय विनष्ट होता है, तथा आगामी भवों में स्वर्ग और मोक्षका सुख प्राप्त होता है । इसलिए गुणवान् लोगोंके द्वारा श्रावकोंका सन्मान किया जाना चाहिए ॥ २० ॥ इस दुःखमा नामक कलिकाल में जिनेन्द्र- उपदिष्ट धर्म क्षीणताको प्राप्त हो रहा है, आत्मध्यान करनेवाले मनुष्य विरल दिखाई दे रहे हैं, मिथ्यात्वरूप अन्धकार प्रचुरतासे फैल रहा है, तथा चैत्य ( जिनबिम्ब ) और चैत्यालय में अर्थात् उनके निर्माणमें परम भक्ति-सहित जो श्रावक थे, वे भी नहीं दिखाई देते हैं । ऐसे समय में जो भव्य पुरुष भक्ति के साथ विधिपूर्वक जिन-बिम्ब और जिनालयोंका निर्माण करता है, वह सज्जनोंका वन्दनीय ही है ॥ २१ ॥ आचार्य कहते हैं कि जो भव्य जीव ऐसे इस कलिकालमें भक्ति से बिम्बा ( कुन्दुक ) के पत्र बराबर जिनालय अथवा यव ( जो ) के बराबर जिन-बिम्बको भी बनवाते हैं, उसके पुण्यको वर्णन करनेके लिए साक्षात् सरस्वती भी समर्थ नहीं है । फिर जिन-बिम्ब और जिनालय इन दोनों का निर्माण करानेवाले श्रावकके पुण्यका तो कहना ही क्या है ।। २२ ।। Jain Education International इस संसार में चैत्यालयके होने पर भव्य जीव जल-यात्रासे, कल्याणाभिषेकसे, सैकड़ों प्रकारके महान् उत्सवोंसे, नानाप्रकारकी पूजाओंसे, सुन्दर चन्दोवाओंसे, नैवेद्य समर्पणसे, बलि ( भेंट ) प्रदान करनेसे, ध्वजाओंके आरोपणसे, कलशोंके चढ़ानेसे, घण्टा, चंवर और दर्पण आदि मांगलिक पदार्थोंके द्वारा परम शोभाको बढ़ाकर, तथा सुन्दर शब्द करनेवाले बाजोंको बजानेसे और रात्रिजागरणोंक द्वारा नित्य महान् पुण्यका उपार्जन करते हैं । आजके युगमें यदि चैत्य और चैत्यालय न हों तो उक्त प्रकारके कार्योंके द्वारा पुण्यका उपार्जन सम्भव नहीं है || २३ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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