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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिकागत श्रावकाचार पात्राणामुपयोगि यत्किल धनं तद्धीमतां मन्यते येनानन्तगुणं परत्र सुखदं व्यावर्तते तत्पुनः । योगाय गतं पुनर्धनवतस्तन्नष्टमेव ध्रुवं सर्वासामिति सम्पदां गृहवतां दानं प्रधानं फलम् ॥१५
पुत्र राज्यमशेषमथिषु धनं दत्वाऽभयं प्राणिषु
प्राप्ता नित्यसुखास्पदं सुतपसा मोक्षं पुरा पार्थिवाः । मोक्षस्यापि भवेत्ततः प्रथमतो दानं निदानं बुधैः
शक्त्या देयमिदं सदातिचपले द्रव्ये तथा जीविते ॥१६ ये मोक्षं प्रति नोधताः सुनभवे लग्धेऽपि दुर्बुद्धय
स्ते तिष्ठन्ति गृहे न दानमिह चेत्तन्मोहपाशो दृढः । मत्वेदं गृहिणा यर्थाद्ध विविधं दानं सदा दीयतां
तत्संसारसरित्पतिप्रतरणे पोतायते निश्चितम् ॥१७ यैनित्यं न विलोक्यते जिनपतिनं स्मयंते नाय॑ते
न स्तूयेत न दीयते मुनिजने दानं च भक्त्या परम् । सामर्थ्य सति तदाहाश्रमपदं पाषाणनावा समं ।
तत्रस्था भवसागरेऽतिविषमे मज्जन्ति नश्यन्ति च ॥१८ चिन्तारत्नसुरजुकामसुरभिस्पर्शोपलाद्या भुवि ख्याता एव परोपकारकरणे दृष्टा न ते केनचित् । तैरत्रोपकृतं न केषुचिदपि प्रायो न सम्भाव्यते तत्कार्याणि पुनः सदैव विदधद्दाता परं दृश्यते ॥१९
जो धन पात्रोंके उपयोगमें आता है, बुद्धिमान लोग उसे ही अच्छा मानते हैं, क्योंकि पात्रमें दिया गया वह धन परलोकमें सुखदायी होता है और अनन्तगुणा होकर वापिस प्राप्त होता किन्तु धनी पुरुषका जो धन भोगके लिए खर्च किया जाता है वह नष्ट हुआ ही समझना चाहिए। सारांश यह है कि गृहस्थोंके सभी सम्पदाओंके पानेका प्रधान फल एक दान ही है ॥ १५ ॥
पूर्व काल में अनेक बड़े-बड़े राजा लोग पुत्रोंको राज्य देकर और धनार्थी याचक जनोंको समस्त धन देकर, तथा सर्व प्राणियोंको अभयदान देकर उत्तम तपका आचरण कर नित्य अवि. नाशी सूखके धाम मोक्षको प्राप्त हुए हैं। इसलिए मोक्षका सबसे प्रथम कारण यह दान ही है। जब यह धन और जीवन अति चपल हैं, जलबुबुदवत् क्षणभंगुर हैं, तब ज्ञानी जनोंको चाहिए कि वे शक्तिके अनुसार सदा ही पात्रोंको दान दिया करें ॥ १६ ॥
जो मनुष्य इस सुन्दर नर-भवको पा करके भी मोक्षके लिए उद्यम नहीं करते हैं, तथा घरमें रहते हैं फिर भी दान नहीं देते हैं, वे दुर्बुद्धि हैं और उनका मोहपाश दृढ़ है, ऐसा समझना चाहिए। ऐसा जानकर गृहस्थको अपने ऋद्धि-वैभवके अनुसार सदा दान देना चाहिए, क्योंकि उनका यह दान संसार-समुद्रको पार उतारने में निश्चित रूपसे जहाजके समान है ॥ १७॥
जो मनुष्य सामर्थ्य होने पर भी जिन भगवान्के न तो नित्य दर्शन ही करते हैं, न उनका स्मरण हो करते हैं, न पूजन ही करते हैं, न उनका स्तवन हो करते हैं, और न मुनिजनोंको भक्तिसे दान ही देते हैं, उन मनुष्योंका गृहस्थाश्रम पाषाणकी नावके समान है। ऐसे गृहस्थाश्रमरूप पाषाणको नावमें बैठे हुए मनुष्य इस अतिविषम भव-सागरमें नियमसे डूबते हैं और विनाशको प्राप्त होते हैं ।। १८॥
चिन्तामणि रत्न, कल्पवृक्ष, कामधेनु और पारस पाषाण आदिक पदार्थ संसारमें परोपकार करनेमें प्रख्यात हैं, यह बात आज तक सुनी ही जाती है, किन्तु किसी भी मनुष्यने आज तक उन्हें
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