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________________ श्रावकाचार-संग्रह मेहणसण्णारूढो माई णवलक्खसुहमजीवाई । इय जिणवरेहि भणियं बझंतरणिग्गंथरूवेहि ॥४१ गेहे वटुंतस्स या वावारसयाई सया कुणंतस्स । आसवइ कम्ममसुहं अट्टरउद्दे पवत्तस्स ॥४२ जह गिरिणई तलाए अणवरयं पविसए सलिलपरिपुण्णं । __ मणवयतणुजोएहि पविसइ असुहेहिं तह पावं ॥४३ जाम ण छंडइ गेहं तामण परिहरइ इंतयं पावं । पावं अपरिहरंतो हेओ पुण्णस्स मा चयउ॥४४ आमुक्क पुण्णहेउं पावस्सासवं अपरिहरंतो। बाइ पावेण जरो सो दुग्गइ जाइ मरिऊणं ॥४५ पुण्णस्स कारणाइं पुरिसो परिहरउ जेण णियचित्तं । विसयकसायपउत्तं णिग्गहियं हयपमाएण ॥४६ गिहवावारविरत्तो गहियं जिलिंग रहियसपमाओ। पुण्णस्स कारणाई परिहर उ सयावि सो पुरिसो॥४७ असुहस्स कारणेहि य कम्मच्छक्केहि णिच्च वटुंतो। पुण्णस्स कारणाई बंधस्स भएण णेच्छंतो॥४८ ण मुणइ इय जो पुरिसो जिणकहियपयत्थणवसरूवं तु । अप्पाणं सुयणमझे हासस्स य ठाणयं कुणई ॥४९ पुष्णं पुब्वायरिया दुविहं अक्खंति सुत्तउत्तीए। मिच्छपउत्तेण कयं विवरीयं सम्मजुत्तेण ॥५० मिच्छादिट्ठीपुण्णं फलइ कुदेवेसु कुणरतिरिएसु । कुच्छियभोगधरासु य कुच्छियपत्तस्स दाणेण ॥५१ ही डुबाता है ॥४०॥ ऐसा कहनेवालेके लिए आचार्य उत्तर देते हैं कि देखो-मैथुन संज्ञा पर आरूढ व्यक्ति अर्थात् स्त्रीको सेवन करनेवाला पुरुष स्त्रीकी योनिसे उत्पन्न होनेवाले नौलाख जीवोंका घात करता है। ऐसा बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहसे रहित जिनेन्द्रदेवने कहा है ।। ४१ ॥ घरमें रहनेवाले, और सैकड़ों व्यापार करनेवाले और आत-रौद्रध्यानमें प्रवृत्त पुरुषके अशुभ कर्मोंका सदा आस्रव होता रहता है ।। ४२ ।। जिस प्रकार किसी पहाड़ी नदीका जल पानीसे भरे हुए तालाबमें निरन्तर प्रवेश करता रहता है, उसी प्रकार गृहस्थीके व्यापारमें लगे हुए पुरुषके अशुभ मन-वचनकायके योगोंसे निरन्तर पापकर्मोंका आस्रव होता रहता है ।। ४३ इसलिए जब तक मनुष्य धरका त्याग नहीं करता, तब तक इतने पापोंका परिहार नहीं कर सकता । और जब तक पापोंका परिहार नहीं हो रहा है, तब तक पुण्यके कारणोंको नहीं छोड़ना चाहिए ॥ ४४ ।। क्यों कि पुण्यके कारणोंको छोड़कर और पापके आस्रवका परिहार नहीं करनेवाला पुरुष पापसे बँधता रहता है और फिर मरकर दुर्गतिको जाता है ॥ ४५ ॥ हाँ, वह पुरुष पुण्यके कारणोंका परिहार कर सकता है, जिसने अपना चित्त विषय-कषायोंमें प्रवृत्त होनेसे निगृहीत कर लिया है और जिसने प्रमादका विनाश कर दिया है। भावार्थ-प्रमाद-रहित और विषय-कषाय-विजेता सप्तम गुणस्थानवर्ती साधुको पुण्यके कारणोंका त्याग करना चाहिए, उससे नीची भूमिकावालोंको नहीं ॥ ४६ ॥ जो पुरुष गृह-व्यापारोंसे विरत है, जिसने जिनलिंगको धारण किया है, और जो प्रमादसे रहित है, उस पुरुषको सदा ही पुण्यके कारणोंका परिहार करना चाहिए ॥ ४७ ॥ जो पुरुष अशुभ कर्मोंके कारणभूत असि, मषी, कृषि आदि छह कर्मोमें नित्य लगा रहता है और पुण्यके कारणोंको बंधके भयसे नहीं करना चाहता है, वह पुरुष जिनेन्द्र-कथित नौ पदार्थों के स्वरूपको नहीं जानता है। ऐसा पुरुष स्वजनोंके मध्यमें अपनेको हास्यका पात्र बनाता है ।। ४८-४९ ॥ पूर्वाचार्योंने आगमसूत्रकी युक्तिसे पुण्यको दो प्रकारका कहा है--एक तो मिथ्यादृष्टिके द्वारा किया जानेवाला पुण्य और दूसरा सम्यक्त्वसे युक्त पुण्य ॥ ५० ॥ मिथ्यादृष्टिका पुण्य कुत्सित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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