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________________ ४२८ श्रावकाचार-संग्रह धूतमांससुरावेश्याऽऽखेटचौर्यपराङ्गनाः । महापापानि सप्तैव व्यसनानि त्यजेद बुधः ॥१० धर्माथिनोऽपि लोकस्य चेदस्ति व्यसनाश्रयः । जायते न ततः सापि धर्मान्वेषणयोग्यता ॥११ सप्तैव नरकाणि स्यूस्तैरेकैकं निरूपितम् । आकर्षयन्नणामेतद् व्यसनं स्वसमृद्धये ॥१२ धर्मशत्रुविनाशार्थ पापाय कुपतेरिह । सप्ताङ्गबलवद्राज्यं सप्तभिव्यंसनैः कृतम् ॥१३ प्रपश्यन्ति जिनं भक्त्या पूजयन्ति स्तुवन्ति ये । ते च दृश्याश्च पूज्याश्च स्तुत्याश्च भुवनत्रये ॥१४ ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न । निष्फलं जीवितं तेषां तेषां धिक् च गृहाश्रमम् ॥१५ प्रातरुत्थाय कर्तव्यं देवतागुरुदर्शनम् । भक्त्या तद्वन्दना कार्या धर्मश्रुतिरुपासकैः ॥१६ पश्चादन्यानि कर्माणि कर्तव्यानि यतो बुधैः । धर्मार्थकाममोक्षाणामादौ धर्मः प्रकीर्तितः ।।१७ गुरोरेव प्रसादेन लभ्यते ज्ञानलोचनम् । समस्तं दृश्यते येन हस्तरेखेव निस्तुषम् ॥१८ व्यसनोंका साक्षात सर्वथा त्याग कर देना चाहिए ॥ ९॥ जूआ खेलना, मांस खाना, मद्य पीना, वेश्या सेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्री-रमण करना ये सात व्यसन हैं, जो महापापरूप हैं, इसलिए ज्ञानी पुरुष इन सातों हो व्यसनोंका परित्याग करे ॥ १०।। __ यदि धर्मार्थी पुरुषके व्यसनोंका आश्रय है, तो उसके धर्म के अन्वेषण की योग्यता कदापि नहीं हो सकती है, इसलिए धर्म धारण करनेके इच्छुक पुरुषको किसी भी व्यसनका सेवन नहीं करना चाहिए ॥ ११ ॥ - आचार्य कहते हैं कि सात ही नरक हैं और सात ही व्यसन हैं, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है-मानों उन सातों नरकोंने अपनी-अपनी समृद्धि के लिए लोगोंके आकर्षण करनेवाले इन एकएक व्यसनको नियत किया है ।। १२॥ अथवा ऐसा ज्ञात होता है कि इस संसारमें धर्मको शत्रु मानकर उसके विनाशके लिए और पापके प्रसारके लिए मोहरूपी खोटे राजाके सात अंग युक्त बलवान् सेनावाला यह कुराज्य सातों व्यसनोंके द्वारा रचा गया है ॥ १३ ॥ भावार्थ-जिसप्रकार राजाकी सेना हाथी, घोड़े, रथ आदि सात अंगोंसे युक्त हो, तो उसका राज्य प्रबल माना जाता है और वह सहजमें ही अपने शत्रुको जीत लेता है । इसी प्रकार मोहरूप खोटे राजाने सात व्यसन रूप पाप-सेना रचकर धर्मरूप अपने शत्रुको जीत लिया है, ऐसी ग्रन्थकार कल्पना करते हैं। जो भव्य जीव प्रतिदिन जिनदेवके भक्तिपूर्वक दर्शन करते हैं, उनका पूजन करते हैं और स्तुति करते हैं, वे तीनों लोकोंमें दर्शनीय, पूजनीय और स्तवन करनेके योग्य हैं किन्तु जो जिनेन्द्रदेवके न दर्शन करते हैं, न पूजन करते हैं, और न स्तुति ही करते हैं, उनका जीवन निष्फल है और उनका गृहस्थाश्रम भी धिक्कारके योग्य है ॥ १४-१५ ॥ इसलिए भव्य जीवोंको प्रातःकाल उठकर जिन भगवान् और गुरुजनोंका दर्शन करना चाहिए, भक्तिसे उनकी वन्दना करनी चाहिए, तथा धर्मका उपदेश सुनना चाहिए। इसके पीछे ही धर्मकी उपासना करनेवाले गृहस्थोंको अन्य सांसारिक कार्य करना चाहिए। क्योंकि गणधरादि ज्ञानी जनोंने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थोंमें धर्मको ही आदिमें कहा है॥१६-१७॥ गुरुके प्रसादसे ही ज्ञानरूप नेत्र प्राप्त होता है, जिसके द्वारा समस्त विश्व-गत पदार्थ हस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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