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________________ पद्मनन्दिपञ्चविंशतिकागत श्रावकाचार ४२९ ये गुरुं नैव मन्यन्ते तदुपास्तिं न कुर्वते । अन्धकारो भवेत्तेषामुदितेऽपि दिवाकरे ॥१९ ।। ये पठन्ति न सच्छास्त्रं सद्गुरुप्रकटीकृतम् । तेऽन्धाः सचक्षुषोऽपोह सम्भाव्यन्ते मनीषिभिः ॥२० मन्ये न प्रायशस्तेषां कर्णाश्च हृदयानि च । यैरभ्याशे गुरोः शास्त्र न श्रुतं नावधारितम् ॥२१ देशव्रतानुसारेण संयमोऽपि निषेव्यते । गृहस्थैर्येन तेनैव जायते फलवद् व्रतम् ॥२२ । त्याज्यं मांसं च मद्य च मधदुम्बरपञ्चकम् । अष्टौ मूलगुणाः प्रोक्ता गृहिणो दृष्टिपूर्वकाः ॥२३ अणुव्रतानि पञ्चैव त्रिःप्रकारं गुणवतम् । शिक्षावतानि चत्वारि द्वादशेति गृहिवते ॥२४ पर्वस्वथ यथाशक्ति भुक्तित्यागादिकं तपः । वस्त्रपूतं पिबेत्तोयं रात्रिभोजनवर्जनम् ॥२५ तं देशं तं नरं तत्स्वं तत्कर्माण्यपि नाश्रयेत् । मलिनं दर्शनं येन येन च व्रतखण्डनम् ॥२६ भोगोपभोगसंख्यानं विधेयं विधिवत्सदा। व्रतशन्या न कर्तव्या काचित्कालकला बुधैः ॥२७ रत्नत्रयाश्रयः कार्यस्तथा भव्यैरतन्द्रितैः । जन्मान्तरेऽपि यच्छ्रद्धा यथा संवर्धतेतराम् ॥२८ रेखाके समान स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसलिए ज्ञानार्थी गहस्थोंको भक्तिपूर्वक गुरुजनोंकी वैयावृत्त्य और वन्दना आदि करना चाहिए। जो गुरुजनोंका सम्मान नहीं करते हैं और न उनकी उपासना ही करते हैं, सूर्यके उदय होनेपर भी उनके हृदयमें अज्ञानरूप अन्धकार बना ही रहता है ।। १८-१९ ॥ __ जो मनुष्य सद्-गुरुओंके द्वारा प्रकट किये गये ( निरूपित या रचित ) उत्तम शास्त्रोंको नहीं पढ़ते हैं, उन पुरुषोंको मनीषी जन नेत्र-धारक होने पर भी अन्धे ही मानते हैं। इसलिए गृहस्थको शास्त्रोंका पठन, श्रवण और मनन अवश्य करना चाहिए । ग्रन्थकार कहते हैं कि जिन लोगोंने गुरुजनोंके समीपमें बैठकर शास्त्रोंको न सुना है और न मनन-चिन्तन कर उसे हृदयमें धारण ही किया है उनके कान और हृदय नहीं है, ऐसा मैं मानता हूँ ।। २०-२१ ॥ गृहस्थोंको अपने एकदेशव्रतके अनुसार संयमका भी पालन करना चाहिए, क्योंकि संयमके द्वारा ही उनका वह देशव्रत फलीभूत होता है ।। २२ ।। श्रावकोंको मांस, मद्य, मधु और पांच उदुम्बर फल इन आठोंके खानेका अवश्य त्याग करना चाहिए। सम्यग्दर्शनपूर्वक उक्त आठोंका परित्याग ही गृहस्थोंके आठ मूलगुण कहे गये हैं ।। २३ ॥ अहिंसादि पांच अणुव्रत, देशवतादि तोन गुणव्रत और सामायिकादि चार शिक्षाव्रत ये गृहस्थोंके बारह व्रत जिनेन्द्र देवने निरूपण किये हैं ॥ २४ ।। __उक्त आठ मूलगुणोंको धारण करने तथा बारह व्रतोंको पालन करनेके अतिरिक्त गृहस्थोंको पर्वके दिनोंमें यथाशक्ति भोजन और रसादिके त्यागरूप तप करना चाहिए, वस्त्र-गालित जल पीना चाहिए और रात्रि-भोजनका परित्याग करना चाहिए ॥ २५ ।।। गृहस्थोंको ऐसे देश, मनुष्य और कार्योंका आश्रय नहीं लेना चाहिए, जिससे कि उसका सम्यग्दर्शन मलिन हो और जिससे उसके धारण किये गये व्रतोंका खण्डन हो ॥ २६ श्राव को सदा विधिपर्वक भोग और उपभोगके योग्य पदार्थोंके सेवनकी संख्याका भी नियम लेना चाहिए । ज्ञानी जनोंको कालको एक कला (क्षण ) भी व्रत-शून्य नहीं बिताना चाहिए ॥ २७ ॥ तथा भव्योंको आलस्य-रहित होकर रत्नत्रय धर्मका आश्रय लेना चाहिए, जिससे कि जन्मान्तरमें भी तत्त्वको श्रद्धा उत्तरोत्तर दृढ़ताके साथ बढ़ती जावे ॥ २८ ॥ ६ ॥ काको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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