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________________ पद्मनन्दिपञ्चविंशतिकागत श्रावकाचार आद्यो जिनो नपः श्रेयान् वतदानादिपुरुषो। एतदन्योऽन्यसम्बन्धे धर्मस्थितिरभूदिह ॥१ सम्यग्दृग्बोधचारित्रत्रितयं धर्म उच्यते । मुक्तः पन्थाः स एव स्यात्प्रमाणपरिनिष्ठितः ॥२ रत्नत्रयात्मके मार्गे संचरन्ति न ये जनाः । तेषां मोक्षपदं दूरं भवेद्दीर्घतरो भवः ॥३ सम्पूर्ण-देशभेदाभ्यां स च धर्मो द्विधा भवेत् । आद्य भेदे च निर्ग्रन्था द्वितीये गृहिणः स्थिताः ॥४ सम्प्रत्यपि प्रवर्तेत धर्मस्तेनैव वर्त्मना । तेनैतेऽपि च गण्यन्ते गृहस्था धर्महेतवः ॥५ सम्प्रत्यत्र कलो काले जिनगेहो मुनिस्थितिः । धर्मश्च दानमित्येषां श्रावका मूलकारणम् ॥६ देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । वानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥७ समता सर्वभूतेषु संयमे शुभभावना। आतं-रोद्वपरित्यागस्तद्धि सामायिकं व्रतम् ॥८ सामायिकं न जायेत व्यसनम्लानचेतसः । बाक्केन ततः साक्षात्याज्यं व्यसनसप्तकम् ॥९ आदि जिनेन्द्र श्रीऋषभनाथ और श्रेयान्स राजा ये दोनों व्रत (धर्म) तीर्थ और दानतीर्थके प्रवर्तक आदि महापुरुष हैं। इन दोनोंके पारस्परिक सम्बन्धसे ही इस युगके आदिमें इस भरतक्षेत्रमें धर्मको स्थिति हुई । अर्थात् भ० ऋषभदेवने सर्वप्रथम जिन दीक्षा ग्रहण करके व्रतरूप तीर्थका प्रवर्तन किया और श्रेयान्स राजाने सर्वप्रथम भ० ऋषभदेवको आहारदान देकर, दानरूप तीर्थका प्रवर्तन किया है ॥ १॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंके समुदायको धर्म कहते हैं। यह धर्म ही मोक्षका मार्ग है, क्योंकि वह प्रमाणसे अर्थात् युक्ति और आगमसे प्रमाणित है ॥२॥ जो मनुष्य इस रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग पर नहीं चलते हैं, उनके लिए मोक्षपद बहुत दूर है और ऐसे मनुष्योंका संसार भी दीर्घतर हो जाता है। अर्थात् रत्नत्रयरूप धर्मको धारण किये बिना संसारसे छूटना संभव नहीं है ।। ३ ।।। वह रत्नत्रयस्वरूप धर्म सर्वदेश और एकदेशके भेदसे दो प्रकारका है। उसमेंसे सर्वदेशरूप धर्ममें निर्ग्रन्थ मुनिजन अवस्थित हैं और एकदेशरूप धर्ममें गृहस्थ अवस्थित हैं । भावार्थ-पूर्णरूपसे रत्नत्रय धर्मका पालन मुनि करते हैं और एकदेशरूपसे उसका पालन श्रावक करते हैं ।। ४॥ आज इस कलिकालमें भी वह रत्नत्रयरूप धर्म उस ही मार्गसे प्रवर्तित हो रहा है, इसीलिए ये गृहस्थ भी उस धर्मके कारण गिने जाते हैं ।। ५ ॥ आज इस कलिकालमें जिन-मन्दिर, मुनि जनोंका अवस्थान, और दान यही धर्म है और इन तीनोंके मूल कारण श्रावक ही हैं ॥ ६॥ जिन देवकी पूजा, गुरुओंकी उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये छह कर्म या कर्तव्य श्रावकोंके प्रतिदिन करने योग्य हैं ॥७॥ सर्व प्राणियोंमें समताभाव रखना, संयम-पालन करनेमें उत्तम भावना रखना और आर्तध्यान एवं रौद्रध्यानका परित्याग करना यही सामायिक व्रत है ॥ ८॥ ___ व्यसनोंसे मलिन चित्त पुरुषके सामायिक व्रत संभव नहीं है, इसलिए श्रावकको सातों ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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