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________________ ४२६ श्रावकाचार-संग्रह ते सच्चित्तेन निक्षेपः सचित्तावरणं परम् । व्यपदेशश्च मात्सर्य कालातिक्रमतातिथौ ॥६९ आशंसे जीविते मृत्यौ निदानं दोनचेतसः । सुखानुबन्धमित्रानुरागौ सल्लेखनामलाः ॥७० सम्यग्ज्ञानादिवृद्धयादिस्वपरानृाहेच्छया। दानं त्यागोऽतिसर्गाख्यः प्रासुकं स्वस्य पात्रगम् ॥७१ विधिदेयविशेषाभ्यां दातृपात्रविशेषतः । भेदः फलस्य भूम्यादेर्भेदात्सद्धिभेदवत् ॥७२ प्रतिग्रहादिषु प्रायः सादरानादरत्वतः । दानकाले विधौ भेदः फलभेदस्य कारकः ॥७३ तपःस्वाध्यायवृद्धचादेर्देयभेदोऽपि हेतुता। एक हि साम्यकृद्देयं ततो वैषम्यकृत्परम् ॥७४ अनसूयाविषादादिरसूयादिपरस्त्वयम् । दायकस्य विशेषोऽपि विचित्रा हि मनोगतिः ॥७५ मोक्षकारणभूतानां दानानां धारणे सताम् । तारतम्यं मनःशुद्धेविशेषः पात्रगोचरः ।।७६ पुण्यात्रवः सुखानां हि हेतुरभ्युदयावहः । हेतुः संसारदुःखानामपुण्यास्रव इष्यते ॥७७ रखनेवाले आहार-पानको ग्रहण करना सचित्त सम्बन्धाहार है। सचित्तसे मिली हुई अचित्त वस्तुका सेवन करना सचित्तसन्मिश्राहार है। गरिष्ठ पदार्थोंका सेवन करना अभिषवाहार है और अधपके अथवा अधिक पके आहारका ग्रहण करना दष्पक्वाहार है॥ ॥ ६८ ॥ सचित्तनिक्षेप, सचित्तावरण, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रमता ये पांच अतिथि संविभाग व्रतके अतिचार हैं। हरे पत्ते आदि पर रखकर आहार देना सचित्त निक्षेप है । हरे पत्ते आदिसे ढका हुआ आहार देना सचित्तावरण है। अन्यदाताके द्वारा देय वस्तुको देना परव्यपदेश है। अन्य दाताओंके गुणको नहीं सहन करना मात्सर्य है। और समय उल्लंघन कर देना कालातिक्रम है।। ६९ ॥ जीविताशंसा, मरणाशंसा, निदान, सुखानुबन्ध और मित्रानुराग ये पांच सल्लेखनाके अतिचार हैं। क्षपकका दीनचित्त होकर अधिक समय तक जोवित रहनेकी आकांक्षा रखना जीविताशंसा है। पोड़ासे घबड़ाकर जल्दी मरनेकी इच्छा करना मरणाशंसा है। आगामी भोगोंकी आकांक्षा करना निदान है। पहले भोगे हुए सुखका स्मरण रखना सुखानुबन्ध है और मित्रोंसे प्रेम रखना मित्रानुराग है ।। ७० ।। सम्यग्ज्ञानादि गुणोंकी वृद्धि आदि स्व-परके उपकारकी इच्छासे योग्यपात्रके लिए प्रासुक द्रव्यका देना त्याग कहलाता है । इसका दूसरा नाम अतिसर्ग भी है ।। ७१ ।। जिस प्रकार भूमि आदिके भेदसे धान्यकी उत्पत्ति आदिमें भेद होता है, उसी प्रकार विधि द्रव्य दाता और पात्रकी विशेषतासे दानके फलमें भेद होता है ।। ७२ ।। दानके समय पडगाहने आदिको क्रियाओंमें आदर या अनादर होनेसे दानकी विधिमें भेद हो जाता है। और वह फलके भेदका करनेवाला हो जाता है ॥ ७३ ।। तप तथा स्वाध्यायको वृद्धि आदिका कारण होनेसे देयमें भेद होता है । यथार्थमें एक पदार्थ तो ऐसा है जो लेनेवालेके लिए समताभावका करनेवाला होता है । और दूसरा पदार्थ ऐसा है जो विषमताका करनेवाला होता है । इसलिए देय द्रव्यमें भेद होनेसे दानके फल में भी भेद होता है ।। ७४ ।। कोई दाता तो ईर्ष्या, विषाद आदि दुर्गुणोंसे रहित होता है। और कोई दाता ईर्ष्या आदि दुर्गुणोंसे युक्त होता है। यही दाताकी विशेषता है । यथार्थमें मनकी गति विचित्र होती है ॥७५ ।। मोक्षके कारणभूत दानोंके ग्रहण करनेमें सत्पुरुषोंके मनको शुद्धिका जो तारतम्य होनाधिकता है वह पात्रकी विशेषता है ।। ७६ ॥ पुण्यास्रव अनेक कल्याणोंकी प्राप्ति करानेवाला हानेस सुखोंका कारण कहा जाता है। और पापास्रव ससारके दुःखोंका कारण माना जाता है ॥ ७७॥ (हरिवंशपुराण सर्ग ५८ से ) . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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