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________________ लाटी संहिता -श्रावकाचार नन्वस्तु तत्तदाज्ञाया प्रष्टुमोहामहे परम् । यदेकाक्षशरीराणां भक्ष्यत्वं प्रोक्तमहंता ॥८४ सत्यं बहुबधादत्र भक्ष्यत्वं नोक्तमहंता । कुतश्चित्कारणादेव नोल्लङ्घ्यं जिनशासनम् ॥८५ एवं चेत्तत्र जीवास्ते कियन्तो वद कोविद । हेतोर्यदत्र सर्वज्ञेरभक्ष्यत्वमुदीरितम् ॥८६ घनाड्गुला संख्य भाग भागेकं तद्वपुः स्मृतम् । तत्रैकस्मिन् शरीरे स्युः प्राणिनोऽनन्तसंज्ञिताः ॥ ८७ उक्तञ्च - एयणिगोयसरीरे जीवा दव्वप्यमाणदो दिट्ठा। सिद्धेहि अनंतगुणा सव्वेण वितोदकालेण ॥७ इदमेवात्र तात्पर्यं तावन्मात्रावगाहके । केचिन्मिथोऽवगाहाः स्युरेकीभावादिवापरे ॥८८ प्रश्न – सर्वज्ञदेवकी आज्ञा मान लेना ठीक है इसमें किसीको कुछ कहना नहीं है परन्तु इसमें इतना और पूछ लेना चाहते हैं कि भगवान् अरहन्तदेवने ही तो एकेन्द्रिय जीवोंके शरीरको भक्ष्य या खाने योग्य वतलाया है । फिर आप अनन्तकाय वनस्पतियोंके भक्षण करनेका निषेध क्यों करते हैं वे भी तो एकेन्द्रिय जीव हैं ॥ ८४॥ उत्तर- यह ठीक है कि सर्वज्ञदेवने दो इन्द्रिय आदि जीवोंके शरीरके भक्षण करनेका निषेध किया है क्योंकि दो इन्द्रिय आदि जीवोंके शरीरकी मांस संज्ञा है तथा एकेन्द्रिय जीवोंके शरीरकी मांस संज्ञा नहीं है इसीलिये सर्वज्ञदेवने एकेन्द्रिय जीवोंके प्रासुक शरीरको भक्षण करनेका निषेध नहीं किया है तथापि उन्होंने ( अरहन्त देवने ) अनन्तकायिक वनस्पतियोंके भक्षण करनेका निषेध किया ही है क्योंकि अनन्तकायिक वनस्पतियोंके भक्षण करनेमें अनेक जीवोंका घात होता है । इसलिये किसी भी कारण से भगवान् अरहन्तदेवकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करना चाहिये || ८५ ॥ प्रश्न - यदि यही बात है अर्थात् साधारण वनस्पतियोंके भक्षण करनेमें उनके जीवोंका वध होता है तो विद्वानोंको बतलाया चाहिए कि उसमें कितने जीव रहते हैं जिस कारण से कि भगवान् अरहन्तदेवने उनको अभक्ष्य बतलाता है ||८६|| उत्तरसाधारण जीवोंका शरीर घनांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है । अर्थात् साधारण जीवोंका शरीर इतना सूक्ष्म होता है कि वह देख नेमें आ नहीं सकता, किन्तु उसको अनुमानसे जाननेके लिये एक अंगुल लम्बे एक अंगुल चौड़े और एक अंगुल ऊँचे क्षेत्रके यदि असंख्यात भाग किये जायें तो उनमें से एक भाग प्रमाण साधारण जीवोंका होता है उतने छोटे अत्यन्त सूक्ष्म शरीरमें अनन्तानन्त जीव रहते हैं ॥८७॥ १३ कहा भी है-एक निगोद शरीरमें अनन्तानन्त जीव हैं। उनकी अनन्तानन्त संख्या सिद्ध राशि अनन्तगुणी है तथा अबतक जितने सिद्ध हुए हैं उन सबकी संख्यासे भी अनन्तगुणी है ॥७॥ कदाचित् कोई यह प्रश्न करे कि इतने अत्यन्त सूक्ष्म एक शरीरमें उतने ही बड़े शरीरको धारण करनेवाले अन्य अनन्तानन्त जीव उसमें किस प्रकार रह सकते हैं तो इसका उत्तर यह है कि सूक्ष्म पदार्थ जगह नहीं रोकता है। जगह रोकनॅकी शक्ति स्थूल पदार्थोंमें ही है। चांदनी धूप प्रकाश अन्धकार आदि ऐसे बहुत-से स्थूल सूक्ष्म पदार्थ भी हैं जो जगह नहीं रोकते हैं फिर भला अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ तो जगह रोक ही किस प्रकार सकता है ? उन निगोदिया जीवोंका शरीर भी अत्यन्त सूक्ष्म होता है इसलिये उसी एक शरीरमें उतने ही अवगाहको धारण करनेवाले अन्य शरोर भी समा जाते हैं और सब मिलकर एकरूप हो जाते हैं । इसीलिए आचार्योंने बतलाया है कि अत्यन्त सूक्ष्म एक निगोदियाके शरीरमें उतने ही बड़े शरीरको धारण करनेवाले अनन्तानन्त जीव रहते हैं ||८८|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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