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________________ श्रावकाचार-संग्रह मूलबोजा यथा प्रोक्ता फलकाद्याद्रकादयः । न भक्ष्या दैवयोगाद्वा रोगिणाप्यौषधच्छलात् ॥८० तभक्षणे महापापं प्राणिसन्दोहपीडनात् । सर्वज्ञाज्ञाबलादेतद्दर्शनीयं दृगङ्गिभिः ॥८१ ननु केनानुमोयेत हेतुना पक्षघमंता । प्रत्यक्षानुपलब्धित्वाज्जीवाभावोऽवधार्यते ॥८२ मैवं प्रागेव प्रोक्तत्वात्स्वभावोऽतर्कगोचरः । तेन सर्वविदाज्ञायाः स्वीकर्तव्यं यथोदितम् ॥८३ प्रकार जन्म-मरण जिन जीवोंका एक साथ साधारण हो उनको साधारण जीव कहते हैं। इसी प्रकार दूसरे समयमें जो अनन्त जीव उत्पन्न हुए थे वे भी साथ ही मरते हैं । इस प्रकार एक निगोद शरीरमें एक-एक समय में अनन्तानन्त जीव एक साथ उत्पन्न होते हैं और एक साथ हो मरते हैं और वह निगोद शरीर ज्योंका त्यों बना रहता है। उस निगोद शरीरकी उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात कोडाकोडी सागर है। इतने समय तक उसमें प्रत्येक समयमें अनन्तानंत जीव उत्पन्न होते रहते हैं और अनन्तानन्त जीव प्रत्येक समयमें मरते रहते हैं। इतना विशेष है कि जिस निगोदमें पर्याप्त उत्पन्न होते हैं उसमें पर्याप्त ही उत्पन्न होते हैं अपर्याप्त नहीं। तथा जिसमें अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं उसमें अपर्याप्त हो उत्पन्न होते हैं उसमें पर्याप्त उत्पन्न नहीं हो सकते । क्योंकि उनके समान कर्मका उदय होता है ॥६॥ ऊपर जो मूली, अदरख, आलू आदि मूलबीज, अग्रबीज, पोरबोज आदि अनन्तकायात्मक साधारण बतलाये हैं उन्हें कभी नहीं खाना चाहिए। यदि कोई रोगी हो और उसे औषधिरूपमें इन साधारण वनस्पतियोंका सेवन करना पड़े तो भी उसे इन साधारण वनस्पतियोंका भक्षण नहीं करना चाहिये ।।८०॥ इसका भी कारण यह है कि इन साधारण वनस्पतियोंके भक्षण करने में अनन्तानन्त जीवोंका घात होता है अथवा यों कहना चाहिये कि अनन्तानन्त जीवोंसे भरे हुए अनन्त पिंडोंका नाश होता है। इसलिये इनके भक्षण करने में महापाप होता है। इस महापापका विचार भगवान् सर्वज्ञदेवकी आज्ञाके अनुसार सम्यग्दृष्टियोंको अवश्य करना चाहिये ॥८॥ कदाचित् यहाँपर कोई यह शंका करे कि इस पक्ष धर्मका अनुमान किस हेतुसे करना चाहिए, अर्थात् आल, अदरक आदि मूलबीज या अन्य साधारण वनस्पतियोंमें अनन्तानन्त जीव हैं यह बात किस प्रकार मान लेनी चाहिये। क्योंकि उनमें चलते फिरते जीव प्रत्यक्ष तो दिखाई देते ही नहीं हैं। इसलिये प्रत्यक्षमें तो उन साधारण वनस्पतियोंमें जीवोंका अभाव ही दिखायो पड़ता है और इसलिये उनमें कोई जीव नहीं है और जीव न होनेसे उनके भक्षण करने में कोई पाप नहीं है ऐसा ही निश्चय करना पड़ता है। परन्तु ऐसी शंका करनेवालेके लिये कहते हैं कि यह बात नहीं है। हम यह बात पहले कह चुके हैं कि प्रत्येक पदार्थका जो अलग-अलग स्वभाव है उसमें किसी प्रकारका तर्क वितर्क नहीं चल सकता। गिलोय कड़वो होती है और गन्ना मोठा होता है यह उन दोनोंका स्वभाव है। इसमें कोई यह नहीं पूछ सकता कि गन्ना मीठा क्यों होता है अथवा गिलोय कड़वी ही क्यों होती है। जिस पदार्थका जैसा स्वभाव होता है वह वैसा ही रहता है। इसी प्रकार आलू अदरक आदि कन्दमूलोंका या अन्य साधारण वनस्पतियोंका यही स्वभाव है कि उनमें प्रत्येक समयमें अनन्तानन्त जीव उत्पन्न होते रहते हैं और मरते रहते हैं तथा जैसा उनका स्वभाव है वैसा ही उन्होंने बतलाया है। यद्यपि आलू अदरक आदि कन्दमूलोंमें या अन्य साधारण बनस्पतियोंमें जीव दिखाई नहीं पड़ते हैं क्योंकि वे अत्यन्त सूक्ष्म हैं परन्तु सर्वज्ञदेवने उनमें अनन्तानन्त जीव राशि बतलायी है इसलिये भगवान् सर्वज्ञदेवकी आज्ञा मानकर कन्दमूल या साधारण वनस्पतियोंके भक्षण करनेका त्याग अवश्य कर देना चाहिये ।।८२-८३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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