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वराङ्गचरित-गत श्रावकाचार
धर्मो दयामयः प्रोक्तो जिनेन्द्रजितमृत्युभिः । तेन धर्मेण सर्वत्र प्राणिनोऽश्नुवते सुखम् ॥१ तस्माद्धर्मे मति धत्स्व यूयमिष्टफलप्रदे । स वः सुचरितो भर्तुः संयोगाय भविष्यति ॥२ एको धर्मस्य तस्यात्र सूपायः स तु विद्यते । तेन पापालवद्वारं नियमेनापिधीयते ॥३ व्रतशीलतपोदानसंयमोऽर्हत्प्रपूजनम् । दुःखविच्छित्तये सर्व प्रोक्तमेतदसंशयम् ॥४ अणुव्रतानि पञ्चैवं त्रिप्रकारं गुणवतम् । शिक्षाव्रतानि चत्वारि इत्येतद्वादशात्मकम् ॥५ देवतातिथिप्रीत्यर्थ मन्त्रौषधिभयाय वा । न हिंस्याः प्राणिनः सर्वे अहिंसा नाम तद्वतम् ॥६ लोभमोहभयद्वेषैर्मायामानमदेन वा। न कथ्यमन्तं किञ्चित्तत्सत्यवतमुच्यते ॥७ क्षेत्रे पथि कुले वापि स्थितं नष्टं च विस्मृतम् । हार्य न हि परद्रव्यमस्तेयवतमुच्यते ॥८ स्वसृमातृसुताप्रख्या द्रष्टव्याः परयोषितः । स्वदारैरेव सन्तोषः स्वदारव्रतमुच्यते ॥९ वास्तुक्षेत्रधनं धान्यं पशुप्रेष्यजनादिकम् । परिमाणं कृतं यत्तत्सन्तोषव्रतमुच्यते ॥१० ऊर्ध्वाधो दिग्विदिक्स्थानं कृत्वा यत्परिमाणतः । पुनराक्रम्यते नैव प्रथमं तद्गुणवतम् ॥११ गन्धताम्बूलपुष्पेषु स्त्रीवस्त्राभरणादिषु । भोगोपभोगसंख्यानं द्वितीयं तद्गुणवतम् ॥ १२
__ मृत्युके जीतने वाले जिनेद्रदेवोंने दयामयो धर्मको कहा है। उस धर्मके द्वारा प्राणो सर्वत्र सुखको पाते हैं ॥ १॥ इसलिए तुम लोग भी इष्ट फल देने वाले धर्म में अपनी बुद्धिको लगाओ। यह भली-भांतिसे आचरण किया गया धर्म तुम लोगोंके अभीष्ट वस्तुके संयोगके लिए होगा ॥ २॥ इस लोकमें उस धर्मको प्राप्तिका तो एक ही सुन्दर उपाय है, जिसके द्वारा कि नियमसे पापास्रवका द्वार बन्द हो सकता है ॥ ३ ॥ व्रत, शील, तप, दान, संयम और अर्हन्तदेवका पूजन ये सब दुखों के विच्छेदके लिए सन्देह-रहित उपाय कहे गये हैं ।। ४ ॥
पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाक्त ये श्रावकों के बारह प्रकारके व्रत होते हैं ॥ ५ ॥ देवताको प्रतिके लिए, अतिथिके आहारके लिए, मंत्र साधनके लिए, औपधि बनानेके लिए, और किसी भी प्रकार भयके प्रतीकारके लिए किसी भी प्राणीको हिंसा नहीं करनी चाहिए। यह अहिंसा नामका अणुव्रत है ।। ६ ।। लोभसे, मोहसे, भयसे, द्वेषसे, मायासे, मानसे और मदसे कुछ भी असत्य नहीं कहना चाहिए । यह सत्याणुव्रत है ॥ ७॥ खेतमें अथवा घर आदिमें रखी हुई, गिरी हुई और भूली हुई पर-वस्तुको नहीं ग्रहण करना चाहिए। यह अचौर्याणुव्रत है ।। ८ ।। पर-स्त्रियोंको बहिन, माता और पुत्रीके समान देखना चाहिए और अपनी स्त्रोसे सन्तुष्ट रहना चाहिए। यह स्वदारसन्तोषव्रत कहा जाता है ।। ९॥ मकान, खेत, धन, धान्य, पशु और दासी-दास आदिके रखनेका जो परिमाण किया जाता है, वह सन्तोष नामक परिग्रह परिमाणाणुव्रत कहा जाता है ।। १० ।।
ऊपर, नीचे तथा चारों दिशाओं और चारों विदिशाओं में गमनागमनका नियम करके उस परिमाणका अतिक्रमण नहीं करना सो दिग्व्रत नामका प्रथम गुणव्रत है ॥ ११ ॥ गन्ध, ताम्बूल पुष्पादिक भोग्य पदार्थोंमें, तथा स्त्री, वस्त्र, आभूषणादिक उपभोग्य पदार्थों में भोग और उपभोग
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