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________________ ४१७ भव्यधर्मोपदेश उपासकाध्ययन उदारश्च तिरस्कारः प्राप्यतेऽत्रेव जन्मनि । तिर्यङ्-नरकयोर्दुःखं प्राप्यमेवातिदुस्सहम् ॥१४ प्रमाणं कार्यमिच्छाया सा हि दद्यान्निरङ्कशा । महादुःखमिहाख्येयौ भद्रकान्चनसंज्ञको ॥१५ विक्रेता वदरादीनां भद्रो दीनारमात्रकम् । द्रविणं प्रत्यजानीत दृष्टवातो वम॑नि च्युतम् ॥१६ प्रसेवकमितोऽगृल्लाद्दीनारं तु कुतूहली । तत्र काञ्चननामा तु सर्वमेव प्रसेवकम् ॥१७ दीनारस्वामिना राज्ञा काञ्चनो वीक्ष्य नाशितः । स्वयमपितदीनारो भद्रस्तु परिपूजितः ॥१८ विगमोऽनर्थदण्डेभ्यो दिग्विदिक्परिवर्जनम् । भोगोपभोगसंख्यानं त्रयमेतद् गुणवतम् ॥१९ सामायिक प्रयत्नेन प्रोषधानशनं तथा । संविभागोऽतिथीनां च सल्लेखश्वायुषः क्षये ॥२० संकेतो न तिथौ यस्य कृतो यश्चापरिग्रहः । गृहमेति गुणैर्युक्तः श्रमणः सोऽतिथिः स्मृतः ॥२१ संविभागोऽस्य कर्तव्यो यथाविभवमादरात् । विधिना लोभमुक्तेन भिक्षोपकरणादिभिः ॥२२ मधुनो मद्यतो मांसाद द्यूततो रात्रिभोजनात् । वेश्यासङ्गमनाच्चास्य विरतिनियमः स्मृतः ॥२३ गृहधर्ममिमं कृत्वा समाधिप्राप्तपञ्चतः । प्रपद्यते सुदेवत्वं च्युत्वा च सुमनुष्यताम् ॥२४ भवानामेवमष्टानामन्तःकृत्वानुवर्तनम् । रत्नत्रयस्य निर्ग्रन्थो भूत्वा सिद्धि समश्नुते ॥२५ (पद्मचरित पर्व १४ से) :ख होता है उसी प्रकार सभीकी यह व्यवस्था जानना चाहिए ॥१३।। परस्त्री-सेवी मनुष्य इस लोकमें ही भारी तिरस्कार पाता है और पर जन्ममें तिर्यंचों तथा नरकोंके अति दुःसह दुःखोंको पाता है ।।१४।। अपनी इच्छा-तृष्णाका प्रमाण करना चाहिए, क्योंकि निरंकुश इच्छा महादुःख देती है । इस विषयमें भद्र और कांचन नामके दो पुरुष प्रसिद्ध हैं ॥१५॥ वेर आदिको बेचने वाले एक भद्र पुरुषने केवल दीनारके परिग्रहकी प्रतिज्ञा की। एक बार मार्गमें पड़ी हुई दीनारोंसे भरी एक वसनीको देखकर उस कुतूहलीने उसमेंसे अपने नियमके अनुसार एक दीनार निकाल ली। पुन: कांचन नामके पुरुषने उस वसनीको देखा और सब दीनार ले लिए। उस दीनार-भरी वसनीके स्वामी राजाने पता लगाकर कांचनको मरवा दिया । भद्रको जैसे ही दीनारके स्वामोका पता चला, उसने स्वयं ही जाकर उसे राजाको दे दी जिससे राजाने उसका सन्मान किया ॥१६-१८॥ अनर्थदण्डोंसे रहित होना दिशा-विदिशाओंकी सीमाका निर्धारण कर उसके बाहर गमनागमनका छोड़ना और भोगापभोगका परिमाण करना ये तीन गुणव्रत हैं। प्रयत्नपूर्वक सामायिक करना, प्रोषधोपवास करना, अतिथियों को दान देना और आयुके अन्तकालमें सल्लेखना धारण करना ये चार शिक्षा व्रत हैं ॥२०॥ जिसके किसी तिथिमें संकेत नहीं है, जो परिग्रहसे रहित है और सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे युक्त है, ऐसा घरपर आहारके लिए आनेवाला साधु अतिथि कहलाता है ॥२१॥ ऐसे अतिथिके लिए अपने विभवके अनुसार आदरसे लोभ-रहित होकर विधिपूर्वक भिक्षा और उपकरणादिके द्वारा संविभाग करना चाहिए ॥२२॥ उपयुक्त व्रतोंके सिवाय मधुसे, मद्यसे, मांससे, जासे, रात्रिभोजनसे और वेश्याके संगमसे गृहस्थके जो विरति होती है, वह नियम कहा गया है ॥२३॥ इस गृहस्थधर्मका पालन करके जो समाधिपूर्वक मरण करता है, वह उत्तम देवपनेको पाता है और वहाँसे च्युत होकर उत्तम मनुष्यपना पाता है ॥२४|| इस प्रकार श्रावक धर्मका पालन करनेवाला मनुष्य देव मनुष्य के अधिकसे अधिक आठ भवोंमें रत्नत्रयका अनुपालन करके निर्ग्रन्थ होकर सिद्धिको प्राप्त करता है। ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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