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________________ पद्मचरित-गत श्रावकाचार सिद्धो व्याकरणाल्लोकबिन्दुसारैकदेशतः । धारणार्थो धृतो धर्मशब्दो वाचि परिस्थितः ॥१ पतन्तं दुर्गती यस्मात्सम्यगाचरितो भवेत् । प्राणिनं धारयत्यस्माद्धर्म इत्यभिधीयते ॥२ स्नेहपखारव्हानां गृहाधमनिवासिनाम् । धर्मोपायं प्रवक्ष्यामि ऋण द्वादशषा स्थितम् ॥३ वतान्यमूनि पञ्चेषां शिक्षा चोक्ता चतुर्विषा । गुणास्त्रयो यथाशक्तिनियमास्तु सहस्रशः ॥४ प्राणातिपाततः स्थूलाद्विरतिवतिया तथा। प्रहणात्परवित्तस्य परदारसमागमात् ॥५ अनन्तायाश्च गर्भायाः पञ्चसंख्यमिदं व्रतम् । भावना चेयमेतेषां कथिता जिनपुङ्गवः ॥६ इष्टो यथात्मनो बेहः सर्वेषां प्राणिनां तथा । एवं ज्ञात्वा सदा कार्या दया सर्वासुधारिणाम् ॥ एपेव पराकाष्ठा धर्मस्योक्ता जिनाधिपः । वयारहितचित्तानां धर्मः स्वल्पोऽपि नेष्यते ॥८ वचनं परपोडायां हेतुत्वं यत्प्रपद्यते । अलोकमेव तत्प्रोक्तं सत्यमस्माद्विपर्यये ॥९ वषादि कुरुते जन्मन्यस्मिस्स्त्येयमनुष्ठितम् । कर्तुः परत्र दुःखानि विविधानि कुयोनिषु ॥१० तस्मात्सर्वप्रयत्नेन मतिमान् वर्जयेन्नरः । लोकद्वयविरोधस्य निमित्तं क्रियते कथम् ॥११ परिवा भुजङ्गीव वनितान्यस्य दूरतः । सा हि लोभवशा पापा पुरुषस्य विनाशिका ॥१२ यथा च जायते दुःखं रुद्धायामात्मयोषिति । नरान्तरेण सर्वेषामियमेव व्यवस्थितिः॥१३ लोकबिन्दुसार नामक पूर्वके एकदेशरूप संस्कृत व्याकरण से धर्म यह शब्द धारणार्थक धृतिधातुसे सिद्ध हुआ है। सम्यक् प्रकारसे आचरण किया गया यह धर्म दुर्गतिमें गिरते हुए जीवको यतः धारण कर लेता है, अर्थात् बचा लेता है, अतः इसे धर्म कहते हैं ॥१२॥ में (रविषेण) स्नेहरूपी पिंजरेमें रुके हुए गृहस्थाश्रमवासी मनुष्योंके धर्मका उपाय कहता हूं, जो कि वारह व्रतरूपसे स्थित है, उसे सुनो ॥३॥ गृहस्थोंके पांच अणुव्रत, चार शिक्षावन और तीन गुणव्रत ये बारहव्रत यमरूप होते हैं । नियमरूप व्रत तो यथाशक्ति सहस्रों होते हैं ॥४॥ स्थूल हिंसासे, असत्यसे, परद्रव्यके ग्रहणसे, परदाराके समागमसे और अनन्त तृष्णासे विरत होना. ये गृहस्थोंके पांच अणुव्रत हैं। इन ब्रतोंको रक्षाके लिए जिनेन्द्रदेवोंने इस प्रकारको भावना कही है कि जैसे मुझे अपना देह प्यारा है, उसी प्रकार सर्वप्राणियोंको भी अपना अपना देह प्यारा है, ऐसा जानकर मुझे सर्वप्राणधारियोंपर दया करना चाहिए ।।१-७॥ जिनेन्द्रोंने दयाको ही धर्मको चरम सीमा कही है। जिनके चित्त दयासे रहित हैं, उनके अत्यल्प भी धर्म नहीं कहा गया है ||८|| जो वचन दूसरे जीवोंको पीड़ा पहुंचाने में कारण है, वह वचन असत्य ही कहा गया है। किन्तु सत्य इससे विपरीत है। अर्थात् परहितकारी वचन ही सत्य है ॥९॥ की गई चोरी इस जन्ममें वध-बन्धनादि कराती है और मरनेके पश्चात् कुयोनियोंमें नानाप्रकारके दुःखोंको देती है ॥१०॥ इसलिए बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिए कि वह चोरीका सर्व प्रकारसे त्याग करे । जो कार्य दोनों लोकोंमें विरोधका कारण है, वह किया ही कैसे जा सकता है ॥११॥ पर पुरुषको वनिताका सर्पिणी के समान दूसरेसे ही त्याग करना चाहिए। क्योंकि वह पापिनी लोमके वश होकर पुरुषका विनाश कर देती है ॥१२॥ जैसे अपनी स्त्रीको अन्य पुरुषके द्वारा रोके जाने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001553
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages574
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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